बिहार में नये राजनीतिक समीकरण की आहट-गौतम चैधरी

  बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव के पराभव का असर दिखने लगा है। यह पराभव केवल एक व्यक्ति का पराभव नहीं है, इसे एक पूरी राजनीतिक धारा का पतन कहा जाना चाहिए क्योंकि लालू यादव एक व्यक्ति कभी नहीं रहे। उन्होंने बिहार में न केवल अपने बूते राजनीतिक जमीन तैयार की अपितु नकारात्मक ही सही, बिहार की राजनीति को एक दिशा भी दिया। हर निर्माण के दो पक्ष होते हैं, निःसंदेह लालू यादव की राजनीति को सकारत्मक नहीं कहा जा सकता है, लेकिन जिस समाज का लालू नेतृत्व करते हैं, बिहार का वह समाज आज भी लालू प्रसाद यादव को बहुत महत्व देता है और मसीहा से कम नहीं समझता है। लालू प्रसाद यादव ने समाजवादी राजनीति स्वरूप को जातिवादी राजनीति के ढांचे में ढाल दिया और बिहार की राजनीति पर लम्बे समय तक जमे रहे। यहां यह भी कहना जल्दबाजी होगा कि लालू यादव के पतन से बिहार में जातिवादी राजनीति का अंत हो जाएगा।
संभावना यह बन रही है कि अब बिहार की राजनीति एक नया स्वरूप ग्रहण करेगा। जिसमें लालू और नीतीश के साथ कांग्रेस होगी और संभवतः रामविलास पासवान भी होंगे। इस राजनीतिक गठजोड में साम्यवादी दलों की भूमिका अहम होगी और साम्यवादी दल गठजोड के औजार होंगे। इसका उदाहरण भी दिखने लगा है। अब नीतीश कुमार लालू पर तीखी टिप्पणी करने से कन्नी काटते हैं। यह बिहार में राजनीति के नये गठजोड का संकेत है।
विगत दिनों भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का बयान आया कि चारा घोटाले मामले में आगामी 24 अक्टूबर को माननीय न्यायालय में केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत नवीन आरोप-पत्र से पहले जनता दल-युनाइटेड का कांग्रेस पार्टी के साथ गठजाड की घो’ाणा हो जाएगी। इस आरोप में कितनी सत्यता है, यह तो समय के गर्भ में है, लेकिन जिस प्रकार समाचार माध्यमों में चारा घोटाले के प्रमुख आरोपी श्याम विहरी सिन्हा के कबूलनामे पर चर्चा हो रही है, उससे तो यही लगता है कि केन्द्रीय जांच ब्यूरो एक मोर्चा नीतीश कुमार के खिलाफ भी खोल सकती है। इस आसन्न आक्रमण की काट फिलहाल नीतीश और उनकी पार्टी के पास नहीं है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि जनता दूल-यू विभागजन की ओर बढ रहा है। बिहार में कुछ ऐसे भी नेता जनता दल-यू के हैं जो नीतीश कुमार की कार्यशैली से नाखुश हैं और भाजपा में जाना नहीं चाहते हैं। ऐसे नेता संभव है कि जद-यू के रा’ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव के नेतृत्व में दूसरी पार्टी बना लें। नीतीश कुमार इस विभाजन से भी ससंकित हैं। नीतीश कुमान को पक्का भरोसा हो गया है कि आगामी चुनावों में वे अपने बूते भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। इसलिए नीतीश कुमार संभवतः दो धाराओं पर काम करने लगे हैं। एक वे बिहार के पिछडेपन का नारा दे रहे हैं, दूसरा धर्मनिर्पेक्षा के आधार पर पुराने दोस्तों से संबंध मजबूत करने की योजना बना रहे हैं। इस योजना में नीतीश को यह लग रहा है कि कांग्रेस और साम्यवादी दल उनका सहयोग करेंगे। इन दिनों ऐसी संभावना दिखने लगी है। लालू प्रसाद यादव का जैसे जैसे पतन होगा नीतीश कुामर की भी उसी गति से उलटी गिनती प्रारंभ होगी। इसलिए इन दिनों नीतीश कुमार की न केवल भा’ाा बदल गयी है अपितु वे अपनी कार्यशैली में भी परिवर्तन ला रहे हैं।
लालू और लालू की पार्टी रा’ट्रीय जनता दल के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया से वे बच रहे हैं। नीतीश ने अब अपनी पूरी ताकत भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ लगा दी है। नीतीश कुमार को यह लगने लगा है कि प्रदेश में उनके अस्तित्व के लिए भारतीय जनता पार्टी का पराभव जरूरी है। नीतीश कुमार को लग रहा है भाजपा विरोधी अभियान से वे बिहार की राजनीति में स्थापित हो सकते हैं। संभवतः नीतश कुमार का मानना है कि उनकी इस राजनीति से जाहां एक ओर केन्द्र में बैठी कांग्रेस पार्टी उनको मदद करेगी, वही उन्हें यह भी लगने लगा है कि बिहार में फिर से अगडों के खिलाफ जातिवादी समाजवादियों को गोलबंद किया जा सकता है।
इसका एक उदाहरण विगत संसदीय चुनाव में छपरा संसदीय क्षेत्र का है। छपरा संसदीय क्षेत्र से लालू यादव सांसद रहे हैं। न्यायालय के निर्णय के बाद उन्हें सांसदी छोडनी पडी। बीते संसदीय चुनाव में छपरा में जो जातिगत समीकरण था उसमें लालू प्रसाद यादव का जीतना संभव नहीं था, लेकिन ऐन मौके पर कुर्मी वाहुल्य तीन विधानसभा में परिवर्तन देखा गया। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि नीतीश कुमार के निदेर्श पर छपरा के मसरख, मढौडा और मकेड-मुकरैडा में एक खास जति विशे’ा के लोगों ने लालू यादव का समर्थन किया। छपरा लोकसभा चुनाव में जिस क्षेत्र में नीतीश कुमार का प्रभाव माना जाता है, वही से लालू यादव को बढत मिली। बिहार की राजनीति में एक सम्भावना यह बन रही है कि पिछडा राजनीति को जीवित रखने के लिए आने वाले समय में नीतीश कुमार एक बार फिर से अपने बडे भाई लालू यादव के साथ हाथ मिला सकते हैं। इसलिए लालू यादव के राजनीतिक पराभव को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।
लालू यादव नीतीश कुमार के साथ कितना तालमेल करते हैं यह तो समय बताएगा लेकिन लालू यादव के पराभव से न केवल बिहार की राजनीति पर उसका असर होगा अपितु इसका प्रभाव केन्द्र पर भी पडेगा। नीतीश और कांग्रेस दोनों ने मन बना लिया है कि वे अगली सरकार में एक दूसरे का सहयोग करेंगे। लालू यादव के पराभूत होने से कांग्रेस को यह लगने गला है कि नीतीश अब बिहार की पूरी कमान अपने हाथ में ले सकते हैं। इसलिए कांग्रेस भी यही चाह रही है कि बिहार में धर्मनिर्पेक्षा को आधार बनाकर बिहार के तमाम भाजपा विरोधी दलों को एक मंच पर लाया जाये। कांग्रेस इस प्रयोग को रा’ट्रीय स्तार पर भी आजमाना चाहती है। इसके लिए पहल भी प्रारंभ हो गया है। अभी यह दायरा थोडा छोटा लग रहा होगा लेकिन जब साम्यवादी दल के द्वारा पहल होगा तो स्वाभाविक रूप से बिहार के पुराने समाजवादी एक मंच पर आने से गुरेज नहीं करेंगे। इसलिए कतिपय राजनीतिक संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता है।
बिहार में जातिगत समीकरण के आंकडे न तो नीतीश के पक्ष में है और न ही लालू यादव के पक्ष में है। बिहार में यादवों की संख्या लगभगत 15 प्रतिशत है, जबकि मुस्लमानों की संख्या 14 प्रतिशत के आसपास बताया जाता है। यादव मतदाता आज भी लालू प्रसाद यादव को ही अपना नेता मानता है। उधर मुस्लिम मतदाताओं में भी लालू यादव के प्रति जबरदस्त आकर्’ाण है। नीतीश कुमार के पास जातिगत मतदाताओं की संख्या कम है। एक तो बिहार में कुर्मियों की संख्या मात्र 04 प्रतिशत के आसपास है। दूसरा जिस महादलित, अति पिछडे और पसमदा मुस्लमानों को नीतीश अपना वोट बैंक मान रहे थे, उनके बारे में जो ताजा सर्वेक्षण आया है, वह चैकाने वाला है। सर्वेक्षण बताता है कि महादलित, अति पिछडे और पसमदा मुस्लमान दवंग जतियों के संरक्षण में ही मतदान कर पाते हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के पास कोई दवंग जति नहीं हैं। जिस जाति से नीतीश आते हैं वह एक खास क्षेत्र विशे’ा में ही सिमटा हुआ है।
अगडी जति में सबसे ज्यादा प्रभावशाली भूमिहार ब्राह्मण को माना जाता है, जो रणवीर सेना प्रमुख बरमेश्वर मुखिया की हत्या के बाद से नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है। पिछडी जाति में यादव, कुर्मी और कुशवाहा दवंग हैं इसमें से केवल कुर्मी नीतीश का साथ देता रहा है, शे’ा जातियां नीतीश की राजनीति से खफा हैं। इन दिनों कुर्मियों में भी नीतीश कुमार के खिलाफ आक्रोश है। दलितों में पासवान को दवंग माना जाता है। पासवान रामविलास पासवान के साथ हैं। अति पिछडी जाति में निशाद यानि मल्लाहों की दवंगता महत्व रखती है लेकिन कैप्टन जैयनारायण निशाद के पलटी मार जाने से उस जाति पर भी नीतीश कुमार की पकड कमजोर पडने संभावना जताई जा रही है। रहे मुस्लिम पसमदा तो वहां भी पैठान और शेखों के खिलाफ पसमदाओं की कोई राजनीतिक ताकत नहीं है। ऐसे में नीतश निःसंदेह राजनीति की कोई नई संभावना तलाश रहे हैं।
इधर बिहार में लालू यादव, रामविलास पासवान, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी, माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी, सीपीआई-माले और कांग्रेस के पास भी जो राजनीतिक जमीन है वह वर्तमान भाजपा के खिलाफ कमजोर ही कहा जा सकता है। ऐसे में धर्मनिर्पेक्षता को आधार बनाकर बिहार में एक नये समीकरण की गुंजाइस है, जिसपर नीतीश गंभीरता से विचार कर रहे हैं। इस राजनीतिक समीकरण का नेतृत्व किसके पास होगा यह अभी बता देना जल्दबाजी होगा, लेकिन कम से कम भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों को इस इस राजीतिक समीकरण को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। हो सकता है कुछ लोगों को लग रहा होगा कि इस राजनीतिक गठजोड का कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है, लेकिन अब भारत की राजनीति में सिद्धांतों का गठजोड बनना बंद हो गया है। यहां तो राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के आधार पर गठबंधन कर रहे हैं। इस संपूर्ण नीतीशीय जोड-घटाव में भजपा के लिए शरद यादव संभावना के सेतु का काम कर सकते हैं। नीतीश के साथ जहां तक भाजपा को चलना था वहां तक भाजपा चल चुकी है। यह तय है कि बिहार में बिना कोई गठबंधन के भाजपा सत्ता में भागीदारी नहीं कर सकती। इसलिए भाजपा को चाहिए कि वह बिहार में एक नये प्रकार के समीकरण को अपने आधार पर जन्म दे और कांग्रेस तथा नीतीश कुमार द्वारा मैका परस्त राजनीति का जवाब उन्ही की भा’ाा में दे। इसके लिए भाजपा को उपेन्द्र कुशवाहा जैसे नेता पर भी दाव खेलना चाहिए।

Comments

Popular posts from this blog

अमेरिकी हिटमैन थ्योरी और भारत में क्रूर पूंजीवाद का दौर

आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार

हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत