श्राद्ध का स्वांग और कर्मकांडी ब्राह्मणों का पाखंड - गौतम चैधरी

आ”िवन कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से पूरा हिन्दू समाज श्राद्धमय हो जाता है। हर हिन्दू अपने पितरों को प्रशन्न करने के लिए भिन्न प्रकार के प्रयोजन करते हैं। हर कर्मकांडी पंडित इस महा अभियान में व्यस्त हो जाता है।

कर्मकाडी जमात का प्रचार है कि श्राद्ध के महीने में कालकवलित पितर अपनी संतति को आशिर्वाद देने मृत्युभुवन आते हैं। ये अदृष्य अपनी संतति को देखत आनंद मनाते हैं। जौ के आंटे से बना पिंड प्राप्त कर फिर से पितरलोक प्रस्थान कर जात हैं। इस मौसम में दान, यज्ञ, ब्राह्मण भोजन आदि का बडा महत्व बताया जाता है। अपने पितरों को आनन्द दिलाने के लिए कोई सज्या दान करता है तो कोई खांटी पीतल की थाली दान कर देता है। मान्यता है कि यहां दान की हुई वस्तु दान कर्ता के पितरों को विभिन्न लोकों में प्रप्त होगा। आजकल कुछ लोग अपने पीतरों को प्रशन्न करने के लिए आव”यकता के आधुनिक संशाधनों का दान भी करने लगे हैं।

एक लालाजी ने अपने स्वर्गस्थ पिता को स्वर्ग में वाहन-सुख प्रप्त कराने के लिए प्रोहित्य को कार तक दान कर दिया। हलांकि कार संचालन के लिए उन्होंने चालक दान नहीं किया, लेकिन अपने स्वर्गस्थ पिता जी को वे अन्य आधुनिक संशाधनों का आनन्द भी दिलाना चाहते हैं। सो आने वाले समय में वे अपने प्रोहित्य को और उपयोगी वस्तु प्रदान करेंगे। ऐसा उन्होंने मुझे खुद बताया।

दो दिनों पहले श्रीमद्भागवत कथा में कुछ महिला-पुरूष अंग्रे
जी गाने पर भंगडा कर रहे थे। पूछने पर पता चला कि कथा में आज भगवान का जन्म है, इसलिए लोग आनन्द मना रहे हैं। विस्तार से पूछने पर सूचना प्रदाता ने बताया कि मृतक आत्मा को पितर लोग या फिर अन्य दैवी लोकों में पहुंचाने के लिए भागवत की कथा सुनाई जाती है। यह सात दिनों तक चलता है। यही नहीं उसने यह भी बतया कि यदि किसी को संतान नहीं हो रहा है तो हरिबं”ा पुरान की कथा कराने से संतान की प्रप्ति होती है।

विस्तार से तहकिकात करने पर पता चला कि इन दिनों कुछ लोग कर्मकांड को पैथी बनाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम कर रहे हैं। कर्मकांड-पैथी को मान्यता दिलाने के लिए न्यायालय जाने की तैयारी चल रही है। कुछ कर्मकांडपंथी इसे पूर्ण पैथी की मान्यता दिलाने के लिए आन्दोलन चलाने की तैयारी में हैं तो कुछ लोग राजनीतिक दबाव बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के लोगों से संपर्क कर रहे हैं। कर्मकांडपैथी को वि”ाुद्ध और स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति की मान्यता दिलाने के लिए पी. आर. एजें”िायों से सम्पर्क साधा जा रहा है। तर्क दिया जा रहा है कि कर्मकांड के द्वारा न केवल चिकित्सा किया जा सकता है अपितु इस कर्म-महाविज्ञान से जीवन की सारी समस्याओं का समाधान निकला जा सकता है।

उधर बिहार सरकार ने गया में पिंडदान करने वालों के लिए आॅनलाइन बुकिंग की व्यवस्था कर दी है। गया में 15 दिनों के अंदर करोडों का व्यापार हाता है। गया के सामंती पंडा पालथी मार कर अपने यज्ञमानों को सुफल प्रदान करते हैं। बेचारे सर्वहारा पंडितों को तो पांच रूपय पर ही संतोष करना पडता है। यह कम ही लोगों को पता होगा कि गया के पंडा पिंडदान नहीं कराते। वे यज्ञमानों का हाथ बांधकर केवल पीठ ठोकते हैं और मुहमांगा दक्षिणा लेते हैं। चाहे वह प्रेतशिला हो या पुनपुन नदी, चाहे बोधगया हो या अंधकूप, अक्षयबट हो या फल्गु नदी, हर कही मैथिल, कौचद्वीपी, शकलद्वीपी, कनकुब्ज, सरयूपारिण आदि मूल के ब्राह्मण पिंडदान कराते हैं। यहां एक बात का उल्लेख कर देना ठीक रहेगा कि पंडों के पास भुमिहार ब्राह्मण और सामंती राजपूतों के साथ सांठ-गांठ भी है जो समय समय पर पंडों को सामरिक सुविधा उपलब्ध कराते हैं। गया के हर पीड बेदियों पर बस एक ही मंत्र गंजता है ‘‘ पंचको”ो गया क्षेत्रे।‘‘

पिंडदान के इस महा आडंबर वाले पुरातन नगर गया का इतिहास जान लेना ठीक रहेगा। कहा जाता है कि गया, गयाशुर नामक राक्षक के द्वारा बसाया गया नगर है। गयाशुर न केवल प्रतापी राजा था अपितु वह प्रजावत्सल भी था। उसके प्रभाव के कारण शोशण-युक्त संस्कृति का क्षरण होने लगा। गयाशुर में एक मात्र कमी थी कि वह कर्मकांड विरोधी था। कहा जाता है कि विष्णु भगवान ने उसकी छल से हत्या कर दी। गया”ाुर की हत्या के बाद फिर सामंती मनोवृति के सामंतवादियों का गया पर कब्जा हो गया। यह तो शास्त्रीय कथा है पर वास्तविकता यह है कि गया भगवान बुद्ध के प्रभाव में आने से कर्मकांड से मुक्त हो गया था। गया नगर वहां के राजा का प्रयाय बन गया था। विष्णु नामक एक व्यापारी ने ब्राह्मण का स्वांग रच कर राजा की हत्या करा दी और पूरे गया पर कब्जा जमा लिया। उसी व्यापारी के बं”ाज आज गया पर राज कर रहे हैं तथा गया में पडने वाले पिंडों और दान के भागी होते हैं। उसी विष्णु नामक व्यापारी के बं”ाजों को गयावाल पंडा कहा जाता है।

हालांकि इस तथ्य का कोई प्रमान नहीं मिलता है लेकिन गयावालों के व्यवहार और मनोवृति को देखकर यह साबित किया जा सकता है। गयावालों का अन्य तीर्थ प्रोहितों की तरह कोई प्रमाण शास्त्रों में उल्लखित नहीं है।

गयावालों का तर्क है कि भगवान विष्णु द्वारा किये गये यज्ञ का अं”ा कोई ब्राह्मण नहीं ले सकता था। तब भगवान विष्णु ने कु”ा को चीर कर उसमें से एक नये प्रकार के ब्राह्मण की रचना कर दी। इससे साफ जाहित होता है कि गयाववाल, ब्राह्मण के किसी कुनवें में शामिल नहीं है। फिर उन्हें दान लेने का प्रमाण किसी शास्त्र में भी नहीं मिलता है। एसे में न तो शास्त्रोचित और न ही तर्क से गया में पिंछदान का कोई प्रयोजन है।

शरीर पंच तत्वों से बना है। हर तत्वों की अपनी प्रकृति है। अका”ा तत्व जीवन्तता को प्रभावी बनाता है। मृत्यु के बाद हर तत्व अपने मूल तत्व में मिल जाता है। ऐसे में लोक-परलो की कथा कोरी कल्पना है। यह पाखंड और व्यापार के अलावे और कुछ नहीं है। कर्मकांड मात्र शोषण का शास्त्र है। इसका कोई तार्किक और वैज्ञानिक आधार नहीं है। इसलिए पंडदान और पित्रपक्ष का कोई महत्व नहीं है।

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