पश्चिमोत्तर भारत के भूकम्पीय झटकों का भूगर्भीय संकेत - गौतम चैधरी

पश्चिमोत्तर भारत में इन दिनों लगातार कई बार भूकम्प के झटके महसूस किये गये हैं। ये झटके वेशक कमजोर रहे होंगे, लेकिन इन भूकम्पीय झटकों का भूगर्भ में हो रहे त्वरित परिवर्तन के संकेत से जोडकर तो देखा ही जा सकता है। विगत दिनों आए भूकम्प क्षेत्रों पर नजर दौराने से साफ हो जाता है कि ये भूकम्प एक खास भौगोकि क्षेत्र में आ रहा है। भौतिक भूगोल की किताबों में एक कहानी का जिक्र किया गया है। उस कथा का उल्लेख करना यहां उचित रहेगा। कथा को भुगोलिक प्रमाणों से पृथ्वी के वाह्य बनावट के इतिहास से जोडा गया है। भौतिक भूगोल वाले पाट्यक्रम के प्रथम चरण में पृथ्वी के निर्माण की संकल्पना प्रस्तुत की गयी है। उस संकल्पना में प्रत्येक भूगोलवेत्ता इस मत पर सहमत है कि पृथ्वी का निर्माण सूर्य से हुआ है। हालांकि पृथ्वी के निर्माण प्रक्रिया पर भूगोलविदों में व्यापक मतभेद है, लेकिन हर विचाकर इस बात से सहमत है कि पृथ्वी या फिर सूर्य की कक्षा का प्रत्येक ग्रह सूर्य का ही निर्माण है। भौतिक भूगोल की पुस्तकों में पृथ्वी के स्वरूप में परिवर्तन की मुकम्मल जानकारी दी गयी है। भूगोलविदों का मानना है कि आज भी पृथ्वी का आंतकि भाग तरह है। यह तरल जल के समान शीलत नहीं है, अपतु बेहद गर्म है। इसका प्रगटीकरण ज्वालामुखी के द्वारा समय-समय पर होता रहता है।

पृथ्वी के आंतरिक भाग का अध्यन करने वाले भूगर्भ वेत्तओं का मानना है कि पृथ्वी के बाहरी हिस्सों में होने वाले परिवर्तन के पीछे पृथ्वी के अंदर घटने वाली घटनओं का हाथ होता है। हालांकि पृथ्वी के वाहरी हिस्सों में बने स्थलाकृतियों पर नित नवीन परिवर्तन के लिए वायुमंडल विज्ञान वाहरी करकों को जिम्मवार मानता है, लेकिन यह निर्विवाद है कि पृथ्वी के अंदर घटने वाली घटनाओं का प्रकटीकरण पृथ्वी के बाहरी भाग पर दिखता रहता है। भुगोलिक कथा के अनुसार पृथ्वी जब ठंढी हो गयी ता पृथ्वी का अपना वायुमंडल बना और लगातार कई लाख वर्षों तक बारिश होती रही। इससे पृथ्वी के खाई वाले इलाकों में पानी भर गया और वह पानी पृथ्वी के बाहरी हिस्से को दो भागों में विभाजित किया, जिसे आज भी हम देख सकते हैं। एक भाग समुद्र कहलाता है जबकि दूसरे भाग को स्थल कहते हैं। विद्वानों की मानें तो पहले पूरा स्थल इकट्ठे था। बाद में एक दरार ने इस भूभाग को विभाजित कर दिया, जिसे भूगोलवेत्ता अंडवाना और गोंडवाना लैंड के नाम से संबोधित करते हैं। बाद में इन दो भूभागों का भी विभाजन हुआ और सात महाद्वीपों का निर्माण हुआ। अंडवाना और गोंडवाना के बीच जो छिछला समुद्र था उसमें भूभागों पर बहने वाली नदियों के निक्षेप डाला और वह निक्षेप बाद में मोडदार पर्वत के रूप में विकसित हो गया। यूरप के आल्पस से लेकर कम्बोडिया तक की मोडदार पर्वत श्रृंखला उसी छिछले टेथिस सागर में विकसित हुआ है। जिस समय इस मोडदार पर्वत का विकास हो रहा था उस समय पृथ्वी पर लम्बे समय तक भू-संचलन होता रहा। इस भुगोलिक घटना को टरसियरी मुमेंट के नाम से जाना जाता है। पहाड बन जाने के बाद पहाड के निकटस्थ क्षेत्र में जल जमाव को पहाड की नदियों ने अपने निक्षेप से भर दिया और जगह-जगह मोडदार पर्वत के आसपास उपजाउ मैदानों का निर्माण हुआ।

भारतीय उपमहाद्वीप का दक्षिणी हिस्सा गोंडवाला लैंड का भाग है। इस भाग को भौतिक भुगोल में प्रायद्वीपिय पठार कहा जाता है। हिमालय पर्वत निर्माण से पहले के इस पठार पर हुए तीन भू-संचलनों का भी प्रभाव देखा जा सकता है। इस भू-संचलनों को कैलिडोनियन, हरसीनियन और अल्पाइन मुमेंट के नाम से जाना जाता है। उन भू-संचलनों के द्वारा बने स्थलाकृतियों के अवशेष पठारी प्रायद्वीप पर आज भी देखा जा सकता है। यहां तीन पुराने मोडदार पर्वत का अवशिष्ठ देखने को मिलता है। इसमें सबसे पुराना अवशिष्ठ धरवार अनुशासन की चट्टानों का है। इसे पूर्वी घाट की पर्वतीय श्रेणी के नाम से जाना जाता है। फिर प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी भाग में विद्यांचल पर्वत श्रेणी है, इसका विस्तार मेघालय से लेकर गुजरात तक है। हालांकि अब इन श्रेणियों में कठोर चट्टानें हैं और कुछ भुगोलविद इसे मोडदार पर्वत मानने के पक्ष में नहीं हैं, परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि यह भी मोडदार पर्वत ही रहा होगा लेकिन समय समय पर ज्वालामुखीय विस्फोट और जलवायु के अपरूपों द्वारा कटाव के कारण चट्टानों ने अपनी काया बदल दी। प्रायद्वीपिय भारत का तीसरा मोडदार पर्वत अरावली पर्वत क्षेणी है। इस पर्वत का विस्तार उत्तर में पंजाब से लेकर दक्षिण में केरल-तमिलनाडू के तट तक बताया जाता है। विद्वानों का मानना है कि यह मोडदार पर्वत हिमालय से भी उचा था साथ ही इसका विस्तार समुद्र में कई मील अंदर तक था। यदि गौर किया जाये तो इन दिनों जो भूकम्प की घटनाए घट रही है वह अरावली वाले मोडदार पर्वतीय श्रेणी का क्षेत्र है। भूवैज्ञानिक यह मानकर चलते हैं कि प्रशांत महासागर का तटवर्ती भाग तथा हिमालय, आल्पस, हिन्दूकुश-सुलेमान श्रृंखला आग्नेय क्षेत्र है। यहां न केवल भूकम्प आते रहते हैं अपितु यह क्षेत्र ज्वालामुखी की सक्रियता के लिए भी आदर्श है। भारतीय उपमहाद्वीप में केवल हिमालय ही नहीं इसके अलावा तीन अन्य मोडदार श्रेणियों वाले क्षेत्र को भी भूकम्प और ज्वालामुखी सक्रियता के लिए संवेदनशील माना गया है।

फिलवक्त तत्कालीन भूकम्पीय झटकों के हेतु और संभावनाओं पर टिप्पणी करना न तो उचित है और न ही प्रमाणिक, लेकिन पश्चिमोत्तर भारत में हो रहे भूकम्पों का कोई न कोई व्यापक भूगर्भीय संकेत तो निर्विवाद है। अभी विगत दिनों दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में एक ही दिन में भूकम्प के चार झटके महसूस किये गये। उससे पहले पंजाब, उससे पहले जम्मू के क्षेत्रों में तीन तथा हिमाचल प्रदेश में दो झटके महसूस किये जा चुके हैं। हालांकि इन झटकों का कोई व्यापक प्रभाव नहीं पडा है लेकिन इसके भूगर्भीय घटनाओं से आंख नहीं मूदा जाना चाहिए। अकसरहां छोटे-छोटे भूकम्प के झटके बडी घटनाओं का संकेत होता है। इसलिए सरकार और समाज को इस भूकम्पीय झटकों को हल्के में नहीं लेना चाहिए।

माना कि भूकम्प की सटीक जानकारी देना या इकट्ठा करना अभी सम्भव नहीं हो पाया है, लेकिन सरकार और समाज सतर्क रहा तो बडी घटनाओं से होने वाली हानि को सीमित किया जा सकता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि इस मामले को लेकर कोई त्वरित व्यस्था विकसित करे। बडे भूकम्प से पहले जोर की गडगडाहट होती है। हालांकि आवाज के चंद सेेेकेंड के बाद ही जोरदार झटका आता है लेकिन इससे लोगों को सम्हलने का थोडा वक्त तो मिल ही जाता है। भूकम्पों के अक्सर तीन झटके होते हैं। पहला और दूसरा झटका उतना हानिकारक नहीं होता है, पर तीसरा झटका बेहद खतरनाक होता है। सतर्क समाज और संवेदनशील प्रशासन भूकम्प के बडे से बडे झटके को आसानी से निवट सकता है साथ ही हानि को भी सीमित किया जा सकता है। इसलिए भूकम्प पर सतर्कता के साथ संवेदशीलता जरूरी है।

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