राज्य के वित्तीय प्रबंधन पर बढ रहा है केन्द्र का दबाव-गौतम चैधरी

बिहार सरकार का आठवां रिपोर्ड कार्ड प्रस्तुत करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि बिहार के विकास में केन्द्र का कोई योगदान नहीं है। उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार हमारे हिस्से का पैसा देने में आना-कानी कर रही है। नीतीश कुमार ने तो यहां तक कह दिया कि इन दिनों केन्द्र द्वारा वित्ता-पोषित कार्यक्रमों का पैसा भी असमय प्रप्त होता हो रहा है। कार्यक्रम हम पहले कर लेते हैं और पैसा बाद में कई किस्तों में हमें उपलब्ध कराया जाता है। इसी प्रकार की कुछ बातें विगत दिनों पंजाब विधानसभा में सत्तारूढ दल के विधायक सरदार दलजीत सिंह चीमा ने कही। मामला राज्य सरकार के द्वारा प्रदेश में संपत्ति कर लगाने को लेकर उठा था। प्रतिपक्ष सम्पत्ति कर के खिलाफ सदन से वहिरगमन कर गया था और सरकार में शामिल भारतीय जनता पार्टी के विधयक संपत्ति कर पर सवाल खडा कर रहे थे। इसी बीच विधानसभा अध्यक्ष सरदार चरनजीत सिंह अटवाल ने सम्पत्ति कर वाले विधेयक पर बहस के लिए विधायक चीमा को आमंत्रित किया। सदन में विधायक चीमा ने जो मामला उठाया वह नीतीश कुमार से थोडा भी भिन्न नहीं था। हो सकता है नीतीश कुमार की भाषा और चीमा की भाषा भिन्न होगी लेकिन दोनो का भाव लगभग एक जैसा था।

चीमा ने कहा कि केन्द्र राज्य से विभिन्न करों द्वारा एकत्रित धन बटोर कर ले जाता है, उसका मात्र 32 प्रतिशत अंश राज्य सरकार को प्रप्त होता है। वह भी केन्द्र सरकार के द्वारा तय कार्यक्रमों के मद में उसे भेजा जाता है। यह केन्द्र सरकार का न्यायोचित कर बटवारा नहीं है। इस विसंगति को दूर किया जाना चाहिए। चीमा ने कहा कि विगत दिनों केन्द्र सरकार ने पंजाब के कई जनकल्याण कार्यक्रमों को उपलब्ध कराने वाले धन को रोक दिया। उसके लिए केन्द्र ने कहा कि जबतक राज्य सरकार संपत्ति कर नहीं लगाती तबतक मनरेगा और ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे कार्यक्रमों के लिए धन नहीं दिया जागा।

केन्द्र सरकार लगतार घाटे में जा रही है। केन्द्र सरकार यह दिखाना चाहती है कि वह कमजोर राज्यों को मदद करने के कारण आर्थिक दृष्टि से मजबूत राज्यों पर ज्यादा भार डाल रही है। इधर कमजोर कहे जाने वाले राज्य, बिहार, बंगाल, झारखंड, उडीसा आदि राज्यों ने भी केन्द्र के खिलाफ कार्यक्रमों में अंशदान के लिए रूपये उपलब्ध कराने में आना-कानी करने का आरोप लगाया है। इस विसंगति के खिलाफ न केवल पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार परकाश सिंह बादल ने आवाज उठाया है अपितु इस मामले में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कई बार केन्द्र सरकार को आगाह कर चुके हैं। इस बीच केन्द्र की सत्तारूढ गठबंधन के नेता बार-बार यह कहते सुने जाते हैं कि राज्य सरकार केन्द्र के पैसे से अपना विकास कर रही है। अब सवाल यह उठता है कि केन्द्र सरकार क्या किसी राज्य को उसके हिस्से से ज्यादा पैसा उपलब्ध करा रही है? यदि ऐसी बात है तो खास प्रांतों पर केन्द्र की मेहरवानी का मतलब क्या है? पहाडी राज्य पूर्वोत्तर के भी हैं और पहाडी राज्य जम्मू-कश्मीर भी है। आए दिन बेवजह कश्मीर को कई प्रकार की रियायतें दी गयी। हवाई जहाज पर लाद कर रेल की पटरियां और डब्बे घाटी तक पहुंचाये गये लेकिन उत्तराखंड में विगत चार दशकों से प्रस्ताव बन कर तैयार है बावजूद इसके ऋषिकेश से उपर तक रेल नहीं पहुंचाया गया। कहने के लिए और बातें है जिसे उठाया जाये तो पृथक्तावादी मनोवृति को बढावा देने का आरोप सहज लगा दिया जाएगा लेकिन जो वास्तविकता है उसे झुठलाया नहीं जा सकता है।

अब भारत की पुरानी व्यवस्था पर एक विहंगम दृष्टि डाला जाये। पुराने जमाने में भारत में पंचायती राज मजबूत स्थिति में थी। पंचायतों को अधिकार ज्यादा था। पंचातों को सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, स्थानीय प्रशासन, न्याय आदि कई प्रकार का अधिकार प्रप्त था। स्थानीय स्तर पर राजस्व एकत्रित करने का अधिकार भी ग्राम-पंचातों के पास था। कुछ इतिहासकार लगातार यह दलील देते रहे हैं कि जलालुद्दीन अकबर के समय में राजा टोडरमल ने भूमि का सबसे पहले सर्वेक्षण कराया। यह तथ्य सही नहीं है। इस देश में भूमि सर्वोक्षण का काम पुराने जमाने से चलता रहा है। भूमि के साथ ही साथ उद्योग, पशुपालन और वाणिज्य से जो राजस्व प्राप्त होता था उसे ग्राम-पंचायत एकत्रित करता था। ग्राम-पंचायत कुल एकत्रित धन का चैदह आना अपने पास रखता था और दो आना अपने से उपर की निकाय संस्था को भेज देता था। यही व्यवस्था उसके उपर थी। यह प्रक्रिया राज्य की सर्वोच्च संस्था तक चलती थी। केन्द्रीय सत्ता का काम राज्य की सुरक्षा, नीति का निर्धारण, वैदेशिक संबंध आदि हुआ करता था। संस्कृति, शिक्षा, स्थानीय प्रशासन, विकास, उद्योग, वाणिज्य, स्वास्थ्य, जन सूचना, मनोरंजन आदि सारे के सारे काम स्थानीय निकाय के द्वारा संचालित किये जाते थे। इस व्यवस्था पर सबसे पहला आक्रमण मुस्लिम आक्रांताओं ने किया। दिल्ली सल्तनत काल में इस व्यवस्था पर आंशिक प्रहार किया गया। इसके बाद जब मुगल शासक देश में मजबूत हुए तो उन्होंने सत्ता का केन्द्रीकरण प्रारंभ किया। इसके पीछे कारण यह था कि उन्हें अपने ऐशो-आराम के लिए अधिक धन और दास-दाशियों की जरूरत हुई, जिसे एकत्रित करने के लिए मुगल राजाओं को भारत की पुरानी राज व्यवस्था पर प्रहार करना पडा। भारत के स्थानीय निकाय के पराभव की चर्चा न केवल गांधिवादी विचारक धर्मपाल जी ने अपनी पुस्तकों में की है अपितु साम्यवादी चिंतक और साहित्यकार रामविलास शर्मा जी ने भी यदा-कदा इसकी चर्चा की है। रामविलास शर्मा जी ने तो आगे अंग्रजों के शासन काल की विषद चर्चा अपनी पुस्तक में कर रखी है। स्थानीय निकाय पर सबसे ज्यादा प्रहार अंग्रजों ने किया, सत्ता को केन्द्रीकृत करने में बडी भूमिका निभाई। युग बदला, भारत आजाद हो गया, लेकिन मुगल, अंग्रेस के द्वारा स्थापित की गयी सत्ता प्रतिष्ठान को यथावत रखा गया। आज करों की संरचना, केन्द्र-राज्य संबंध और प्रशासनिक व्यवस्था उसी का प्रतिफल है।

उदाहरण के लिए केवल चंडीगढ में सैंकरों अधिकारी प्रतिनियुक्त हैं, जिनके पास कायदे से कोई काम नहीं है। चंडीगढ एक जिला के बराबर भी नहीं है। जिला को चलाने के लिए जितने अधिकारी होने चाहिए वो तो चंडीगढ में है ही उसके अलावे प्रांत को चलाने के लिए अलग से अधिकारियों को रखा गया है। प्रशासक, उसके सलाहकार, विभिन्न विभागों के सचिव, फिर उनके नीचे संयुक्त सचिव, पुलिस आयुक्त स्तर के पुलिस अधिकारी उसे नीचे न जाने कितने अधिकारी कार्य कर रहे हैं। इन अधिकारियों पर होने वाला खर्च आखिर कौन वहन कर रहा है? जवाब एक ही होगा कि जतना के द्वारा एकत्र धन उनके उपर खर्चा जाता है।

यदि राज्य यह मांग कर रहा है कि उसे अपने लिए सोचने का मौका दिया जाना चाहिए तो उसमें हर्ज क्या है? यदि राज्य यह मांग कर रहा है कि राज्य से प्रप्त विभिन्न प्रकार के करों को बिना किसी लाग-लपेट के राज्य में ही छोड दिया जाये, तो इसके लिए केन्द्र को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। राज्य अपने स्तर से विकास की बात कहती है तो इसके लिए केन्द्र को तैयार होना चाहिए। राज्यों के करों में जो हिस्सा केन्द्र का बनता है उस अंश को राज्य से मगवा ले, शष राशि राज्य को अपने ढंग से खर्च करने की छूट दी जाये। इसमें कहां पृथक्तावाद दिखता है? अभी तो मामला बहुत नहीं बिगडा है। आने वाले समय में केन्द को इस प्रकार की व्यवस्था करनी ही होगी। सैनिक डंडों और प्रशासनिक बूटों के धौंस पर व्यवस्था को ज्यादा दिनों तक नहीं चलाया जा सकता है।

निःसंदेह कुछ राज्य पिछडे हैं, लेकिन उसके लिए भी केन्द्र सरकार ही जिम्मेबार है। पूरे देश में समावेशी विकास का माॅडल नहीं लाया गया। एक तरफ केन्द्रीय मदद से पंजाब का भाखडा डैम और चंडीगढ शहर बना तो दूसरी ओर बिहार जैसे राज्यों को भगवान भरोसे छोड दिया गया। कहा गया वहां बाढ नियति का प्रतिफल है, जबकि वास्तविक्ता है कि केन्द्र नेपाल सरकार से बिहार को बाढ में डुबोने का समझौता कर रखी है। आज चीन नेपाल में कई नदियों पर जलविद्युत परियोजना बना रहा है। चीन के साथ समझौता कर नेपाल बागमती और कोशी पर हजारों मेगावाट क्षमता की पनबिजली परियोजना लग रहा है, लेकिन भारत सरकार ने इसके लिए कोई कदम उहीं उठाया, जबकि भारत ने भुट्टान के चुक्का में जाकर पनबिजली परियोजना लगा दिया। बंगाल में चार-चार क्षेत्रीय रेल कार्यालय खोल दिये गये। यही स्थिति मुम्बई की है। पंजाब में कपास का उत्पादन होता था लेकिन सूती कपडों के लिए मुम्बई और अहमदाबाद को प्रोत्साहित किया गया। ईंख की खेती के लिए उत्तर भारत आदर्श था परंतु चीनी मील के लिए महाराष्ट्र को प्रोत्साहित किया गया। तत्कालीन बिहार में कोयले की मात्रा प्रचूर थी परंतु ताप विद्युत के लिए मुम्बई, कोलकात्ता को आदर्श माना गया।

इसलिए विकास के आदर्श माॅडल को अपनाने के लिए केन्द्र सरकार को नये सिरे से विचार करना चाहिए। फिलहाल विधायक चीमा और और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बातों पर अमल कर केन्द्र सरकार को राज्य का अंश बिना किसी शर्तों के तुरन्त उपलब्ध करा देना चाहिए। फिर राज्यों को अपने ढंग से योजना बनाने का अधिकार देना चाहिए। विकास का जो माॅडल पंजाब के लिए उपयुक्त है वही माॅडल पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता है। जो माॅडल दिल्ली और राजस्थान के लिए ठीक है, वही माॅडल तामिलनाडू के लिए यथोचित नहीं होगा और जो माॅडल उत्तर प्रदेश के लिए बढिया है, उसे गुजरात में या फिर महाराष्ट्र में लागू नहीं किया जा सकता है। इसलिए विकास के कार्यक्रमों को राज्य के हित पर छोड दिया जाना चाहिए। केन्द्र, राज्य के मामले में हस्तक्षेप कम से कम करे। इससे राज्य को अपने ढंग से विकास करने का मौका मिलेगा और बढिया ढंग से विकास होगा। इस मामले में देश के नौकरशाह, उद्योगपति, नीति नियंता और राजनेताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए। ऐसा न किये तो कांलांतर में यही कमजोर कडी देश को विभाजन के कगार पर लाकर खडा कर देगा। लिहाजा फिलवक्त देश की केन्द्रीय सत्ता को खर्च कटौती के मामले में राज्य सरकार को धमकाने के बजाय अपने गिरेवान में झाकना चाहिए।

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