भारतीय बहुलतावाद का प्रतिनिधि चिंतन है सूफीवाद

कलीमुल्ला खान
विगत दिनों महान हिन्दूवादी विद्वान और कांग्रेस के नेता डोगरा राज परिवार से संबंधित लेखक करण सिंह जी एक आलेख पढ़ने को मिला। आलेख इतना संतुलित और व्यवस्थित लगा कि उसकी चर्चा करना मैं उचित समझता हूं। करण सिंह जी हिन्दू दर्षन के आधिकारिक विद्वान माने जाते हैं लेकिन इस आलेख ने यह साबित कर दिया कि वे न केवल हिन्दू दर्षन के विद्वान हैं अपितु संपूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले दर्षन सूफीवाद पर भी वे अपनी पकड़ रखते हैं। लेखक करण सिंह के अनुसार सूफीवाद भारत की हजारों साल पहले की बहुलतावादी परंपराओं के अनुकूल है और इसी दर्षन में संपूर्ण भारत के प्रतिनिधित्व की क्षमता भी है। वे कहते हैं कि हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां कई मोर्चों पर तरक्की के बावजूद भी एक बड़ा विरोधाभास-सा बना हुआ है। यहां स्वतंत्र प्रांतों के अंदर राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक भाग हैं, जो आपसी संघर्ष में शामिल रहे हैं, उन्होंने दुनिया के महान धर्मों के प्रतिनिधियों को एक साथ लाने के लिए इसकी विभिनन शाखाओं में मैत्रीपूर्ण बातचीत करने की योजना बनाई है। यह किसी विषेष धर्म की श्रेष्ठता को साबित करने का प्रयास नहीं है, बल्कि यह दूसरों के साथ अपने धर्म को बेहतर समझने की दिषा में एक प्रयास है।
पुराने दिनों की बात करें तो राजा अकबर के दरबार में भी आपसी धर्मिक मतभेद थे। उससे पहले हिन्दू और बौद्ध परंपराओं में भी ऐसे ही मतभेद थे परंतु आधुनिक समय में दुनिया की पहली धर्मिक संसद 1893 में ष्किागो में संपन्न हुई, जहां स्वामी विवेकाननंद ने एक प्रभावषाली छाप छोड़ी थी और यह साबित करने का प्रयास किया कि दुनिया के विभिन्न मत संप्रदायों में एक समानता है जिसे समझने की जरूरत है। 20वीं शताब्दी में सर्वधर्म समभाव की धारणा वाले संगठनों का अभ्युदय हुआ और इस संदर्भ में चर्चा हेतु विष्व में अनेकों सभाएं हुई। सौ साल के बाद 1993 में फिर से दूसरा विष्व धर्म सम्मेलन षिकागो में हुआ और तीसरा 1999 में दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में हुआ। इसी प्रकार चौथा सम्मेलन 2004 में स्पेन के बार्सीलोना में हुआ। इसके अलावा बहुत-सी अन्य बैठकें व सभाएं हुई लेकिन हम पाते हैं कि इस आन्दोलन के बावजूद कई धर्मों में कट्टरवाद ने प्रचंड रूप ले लिया है।
कट्टरवाद की अनेक किस्में हैं, परंतु दुर्भाग्य से वे सभी कट्टरता, दूसरों के प्रति निंदा के आधार पर टिकी हुई है। सूफीवाद धर्मिक तत्वों के बीच एक बुनियादी अंतर को समझने का प्रयास किया है और लोगों को एक साथ लाने की कोषिष की है। कट्टरवाद के कई प्रकार हैं। इन दिनों उसका एक प्रकार हमारे सामने इस्लामिक कट्टरवाद के रूप में दिख रहा है, जो कि दुर्भाग्य से इस्लम के नाम के साथ जुड़ गया है। इस्लाम मानवता वादी धर्म है। सूफीवाद उसकी व्याख्या है पर वर्तमान परिप्रेक्ष में इसे समझने और समझाने वालों ने बड़े बेतरतीब ढ़ंग से इसकी व्याख्या की है।
इस्लाम एक महान धर्म है। करण सिंह कहते हैं कि मैं खुद एक मुस्लिम बाहुल्य राज्य से आया हूं। मैं चरार-ए-षरीफ या लखनूर-साहिब और बाबा ऋषि और हजरत बल दरगाह पर पूजा करता रहा हूं। जब मैं बच्चा था, तब से हम इसी आपसी परंपरा में बड़े हुए हैं। परंतु जेहादियों ने अभी हाल ही के वर्षों में इसे नर्क बना दिया है और दुनिया में एक महान धर्म को बदनाम कर दिया है। इस्लाम मानव धर्म में एक प्रमुख क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। दुनिया में 1/6 या शायद इससे अधिक लोग इस्लाम की षिक्षाओं का पालन करते हैं। अगर इस्लाम में कट्टरवाद पनपता है तो यह बड़ी समस्या पैदा कर सकता है।
सूफीवाद, इसके प्यार और मानवतावादी बलिदान व पीड़ा, सूफियों पर हुए अत्याचार, प्रेम व करूणा के गौरवषाली इतिहास के कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। मंसूर का क्या हश्र हुआ, यह तो हम सब जानते हैं। सूफियों को क्रूस पर चढ़ाया गया, उन पर अत्याचार किया गया परंतु सूफीवाद में अटूट विष्वास आज भी जारी है। बेषक सूफी आन्दोलन में सबसे प्रमुख व महान व्यक्ति मौनाला जलालुद्दीन रूमी रहे हैं। उनकी कविताएं निष्चित रूप से दुनिया की सबसे बड़ी धार्मिक परंपराओं में से एक है। करण सिंह कहते हैं कि मैं व्यक्तिगत रूप से शम्स तबरीजी और रूमी के साथ एक बार मिलने से ही रोमांचित हूं। उस मुलाकात के बारे में ऐसी बहुत सी कहानियां है जिसने मेरे मन में महान गुरू-षिष्य के रिष्तों को प्रस्तुत किया है। चाहे वह सुकरात और प्लूटो हो या हजरत निजामुद्दीन और अमीर खुसरो। चाहे वह श्रीरामकृष्ण और विवेकानंद और चाहे वह शम्स तबरीजी और रूमी हो, यह सब एक दूसरे के बिना पूर्ण नहीं हैं। प्लूटो ने सुकरात के संदेष को और स्वामी विवेकानंद ने श्रीरामकृष्ण के संदेष को पूरे संसार में फैलाया। मौलाना स्वयं भी एक महान छात्र थे परंतु उनके जीवन में आध्यात्मिक समझ तबरीजी से मिलने के बाद ही आ पायी।
महान लेखक करण सिंह के अनुसार भारत में कई जगह पर सूफी आन्दोलन और भक्ति आन्दोलन लगभग समकालन रहे हैं। वास्तव में भक्ति एवं सूफी आन्दोलनों ने हिन्दू-मुस्लिम की मजहबी दीवार को तोड़ दिया था। कई महान मुस्लिम रहे हैं, जैसे कि मलिक मोहम्मद जायसी, जिन्होंने श्रीकृष्ण पर भजन लिखे। इसी प्रकार महान सिख गुरू या हिन्दू-मुस्लमान सूफी संत हुए हैं। एक बार जब हम मानवतावाद, प्यार व समझ के आयामें में प्रवेष कर लेते हैं तो इस तरह के बंटवारे खत्म हो जाते हैं। यह स्वतः स्पष्ट है कि गरिमा कई रूपों में परिलक्षित हो सकती हे किन्तु अन्ततः ये विभिन्न लोगों के लिए पूर्वतः अलग नहीं हो सकती। बहुलवाद की यही पूरी अवधारणा है कि एकम् सत्यम् विप्रा बहुधा वदन्ति। अर्थात सत्य एक ही है किन्तु बुद्धिमान इसे कई नामों से बुलाते हैं। रूमी कहते हैं कि वे दो दुनिया के बारे में नहीं जानते। उनके अनुसार यह केवल एक ही है। वे केवल एक को ही मानते हैं, जानते हैं तथा इसी का गुणगान करते हैं। इसी प्रकार अद्वैत जो शंकराचार्य के दर्षन का आधार है, के लिए गुरू, शेख व देवता के प्रति पूर्ण समर्पण होना चाहिए। उसको क्या दुःख पहुंचाया जा सकता है जो सबको स्वयं में और स्वयं को सबमें देखता है। करण सिंह कहते हैं कि अतः हम सूफी हिन्दूवाद और उपनिषदों की षिक्षा में बहुत सी समानताएं पाते हैं। इसीलिए तो हम कहते हैं कि सूफीवाद भारत की हजारों साल पुरानी बहुलवादी परंपराओं के साथ पूर्णतया मेल खता है इसी चिंतन में भारत की आत्मा बसती है। 

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