मुद्रा परिवर्तन का निर्णय सराहनीय पर सरकार की तैयारियों पर उठ रहे हैं सवाल

गौतम चौधरी
मुद्रा परिवर्तन पर बहस चल रही है। मैं भी आभासी माध्यमों पर विगत दिनों जमकर सक्रिय रहा। मेरा धेय इस मामले को गहराई से जानना था और आमजन इस मुद्दे पर क्या सोच रहा है उसकी गहराई से जानकारी इकट्ठा करना था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा लिए गए निर्णय से उत्पन्न स्थिति की जानकारी के लिए मैं बाजार के कुछ व्यापारियों से भी बात की। साथ ही भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पारंपरिक समर्थकों के पास जाकर उनका मन्तव्य जानने की कोषिष की। कुल मिलाकर मोदी के इस निर्णय से आम जनता खुष दिखी लेकिन सबका यही कहना था कि इस निर्णय को लागू करने के लिए जो रास्ता अपनाया गया है, वह बेहद खतरनाक है। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि प्रधानमंत्री के इस निर्णय से न केवल तात्कालिक परिणाम नकारात्मक आएंगे अपितु इसका दूरगामी प्रभाव भी देषहित में नहीं होगा। इस मामले पर मेरा भी ऐसा ही कुछ सोचना है। मैं व्यक्तिगत रूप से यह मानता हूं कि प्रधानमंत्री के द्वारा लिया गया यह निर्णय आनन-फानन का निर्णय है। बिना किसी पूर्व और पूर्ण तैयारी के इसकी घोषणा की गयी जो न केवल अलोकतांत्रिक है अपितु इससे अविष्वास का माहौल भी पैदा होगा।
किसी अर्थषास्त्री से बात हो रही थी-उन्होंने बताया-प्रत्येक 10 साल पर मौद्रिक परिवर्तन जरूरी है। इससे काले धन पर अंकुष लगता है और बिना मतलब की संपत्ति, जो कहीं बेकार पड़ी है वह काम में आ जाता है। इससे लोगों को रोजगार मिलता है। देष की आधारभूत संरचना में विकास होता है। मंहगाई पर नियंत्रण करने में सहुलियत होती है और राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से मजबूत होता जाता है। किसी राष्ट्र निर्माण की यह जरूरी प्रक्रिया होनी चाहिए। नोटों की छपाई हाती थी और वह क्रमवार तरीके से बाजार में आ रहा था। इससे जो काली कमाई करने वाले लोग हैं वे अपनी काली कमाई वाले धन को परिवर्तित करने में कामयाब हो जाते थे। अबकी बार प्रधानमंत्री ने एकाएक अपना निर्णय सुना दिया। निःसंदेह इसके कारण काली कमाई वाले धन को क्षति पहुंची है। हालांकि प्रधानमंत्री के इस निर्णय की चतुर्दिक आलोचना हो रही है। होना स्वाभाविक भी है। पैसे रहते लोगों के पास वस्तु का आभाव हो गया। बिना किसी पूर्व और पूर्ण व्यवस्था के यह निर्णय सुना दिया गया। बैंक में पैसे नहीं, एटीमए खाली और रात के आठ बजे प्रधानमंत्री यह घोषणा कर देते हैं कि बाजार से हजार और पांच सौ के नोटों को वापस करने के आदेष दे दिए गए हैं। अब वह बाजार में किसी काम का नहीं होगा। इसलिए मेरे प्रिय देषवासी उस नोट को बैंकों में जमा करा दें और उसके बदले मान्य नोट प्रप्त कर लें। छिट-फुट घटनाओं को नजरअंदाज करें तो अभी तक भारतीय मुद्रा पर अविष्वास करने वाली कोई बड़ी घटना ध्यान में नहीं आयी है लेकिन इस प्रकार की घोषणा से बाजार जरूर थरर्रा गया है। हालांकि सरकारी पक्ष के उस तर्क में भी दम है, जिसमें यह कहा जा रहा है कि मुद्र परिर्वन के इस फैसले को घोषणा से पहले सार्वजनिक होने का डर था इसलिए प्रधानमंत्री ने फैसले की गोपनीयता को ध्यान में रखकर ही आनन-फानन में घोषणा की।
इस घोषणा के दूसरे पहलू पर अगर ध्यान दें तो भारतीय बाजार के 90 प्रतिषत विनियमय का आधार नकद है। कई क्षेत्र तो ऐसे हैं जहां केवल नकद पर ही धंधा होता है। प्लास्टिक मुद्रा का उपयोग अपने यहां बहुत कम होता है। यही कारण है कि विगत कुछ दिनों से मंडी और ट्रांसपोर्ट व्यापार में बेहद गिरावट दर्ज की जा रही है। कई व्यापारियों के व्यापर ठप्प पड़े हुए हैं क्योंकि उनका व्यापार ही नकद में हो रहा था। दिल्ली के एक व्यापारी का कहना है कि उनका व्यापार तो अब संभव ही नहीं है क्योंकि उनका करोड़ों का व्यापार केवल कैस पर ही आधारित था। अब जो उनके यहां से उधार ले गए थे उनका पैसा बाजार में डूब गया है। इसलिए उनका भी पैसा बाजार से वापस आने की संभावना कम है। ऐसे में आने वाले समय में उनका व्यापार फिर से खड़ा होने की संभावना बेहद कम है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि एक महीने के बाद ही पता चल पाएगा कि इस नोट परिवर्तन का असर नकारात्मक हुआ है या सकारात्मक लेकिन अभी फिलहाल तो व्यापारी वर्ग इस निर्णय से परेषान हो रहा है। इसलिए प्रधानमंत्री को चाहिए था कि इस प्रकार के निर्णय से पहले कोई तदर्थ व्यवस्था बना लेते और फिर बाजार को अपने हिसाब से नियंत्रित करते।
सेवा उपलब्ध रवाने वाली कंपनियों को इस निर्णय से कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। हालांकि निर्णय के बाद दो दिनों तक बाजार में अफड़ा-तफड़ी मची हुई थी और कई जगह लोग काम करने से हिचक रहे थे लेकिन अब मामला सामान्य होने लगा है। नए नोट बाजार में आ गए हैं और सेवा का क्षेत्र चलने लगा है। इस निर्णय से सरकारी कर्मचारी भी दुखी नहीं हैं। हां मध्यम वर्गीय किसान, छोटे, मझोले और बड़े व्यापारी इस निर्णय से ज्यादा आहत दिख रहे हैं। हाथ से काम करने वाले प्रषिक्षित मजदूर इस निर्णय से परेषा हैं। क्योंकि इस प्रकार के रोजगार भवन निर्माण उद्योग में ही ज्यादा था। भारत का भवन निर्माण उद्योग अधिकतर काली कमाई पर ही आधारित है। ऐसे में विगत कुछ दिनों से इस क्षेत्र में काम बिल्कुल ही रूका हुआ है। इस मामले को लेकर सरकार की नियत पर कुछ सवाल भी उठे हैं। इसमें सबसे बड़ा सवाल दो हजार के नोट पर है। सवाल यह पूछे जा रहे हैं कि जब सरकार खुद बड़े नोटों को भष्टाचार का कारण मानती है तो फिर दो हजार के नोट बाजार में लाने की क्या जरूरत है। सवाल यह पूछे जा रहे हैं कि इस प्रकार की घोषणा अमूमन रिजर्व बैंक के गवर्नर के द्वारा किया जाता है लेकिन ऐसी कौन सी बात है कि प्रधानमंत्री को खुद इसकी घोषणा करनी पड़ी। सवाल तो और कई पूछे जा रहे हैं लेकिन उस सब में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि प्रधानमंत्री ने इस घोषणा के लिए जो प्रक्रिया चूनी वह भारतीय लोकतंत्र के हित में है क्या? सवाल इस घोषणा के समय को भी लेकर पूछे जा रहे हैं।
मुद्र परिवर्तन को लेकर कुछ सुझाव भी आ रहे हैं। यदि सरकार सुझाए गए बिन्दुओं पर पहले ध्यान दी होती हो मुद्रा परिवर्तन का यह लिया गया निर्णय न केवल प्रभावषाली होता अपितु आमजन को इस प्रकार की असुविधा भी नहीं झेलनी होती। सरकार के मुद्रा परिवर्तन नीति पर सवाल खड़े करते हुए भारतीय जनता पार्टी के सांसद सुब्रमण्य स्वामी ने सरकार को सुझाव दिया है कि रिजर्व बैंक को पहले से 100-100 के नोट अधिक संख्या में बाजार को अपलब्ध कराना चाहिए था। इसके अलावा कुछ लोगों का यह भी सुझाव है कि भारत में जो दो लाख के करीब एटीएम हैं उसे पहले से इस योजना के लिए तैयार किया जाना चाहिए था। कुछ लोगों का मानना है कि मुद्रा परिवर्तन के लिए सरकार की तैयारी नाकाफी थी। अगर बाद में भी सरकार ठीक ढंग से योजना बनायी होती तो लोगों को मुद्रा अराजकता से थोड़ी राहत जरूर मिलती। बैंक के कर्मचारियों को भी इसके लिए तैयार नहीं किया गया था। इसलिए कई स्थानों पर आपात स्थिति जैसा माहौल देखने को मिला।  
कुल मिलाकर देखें तो सरकार का निर्णय स्वागत योज्ञ है लेकिन निर्णय की घोषणा के लिए जो प्रक्रिया अपनायी गयी वह सरकार को कठघरे में खड़ा करती है। दूसरी बात यह है कि इस निर्णय के पीछे सरकार की ताकत साफ दिखाई पड़ रही है लेकिन निर्णय के लिए जो तैयारी होनी चाहिए थी वह बेहद कमजोर रही जिसके कारण कई मोर्चों पर सरकार को फजीहत झेलनी पड़ी है और आने वाले समय में इससे अधिक फजीहत झेलनी पड़ेगी।

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