आसन्न जलसंकट पर चाहिए समाधान तो होगी उपमहाद्वीपीय योजना की जरूरत

गौतम चौधरी
पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज-यमुना लिंक नहर पर तलवारें खिंची हुई है। दक्षिण में कावेरी के जल विभाजन पर तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच जबरदस्त टकराव की स्थिति बनी हुई है। विगत दिनों बिहार में आए एकाएक बाढ़ के पीछे का कारण मध्य प्रदेष सरकार की गलती बतायी जा रही है। जल बटवारे को लेकर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के बीच भी संघर्ष के आसार दिख रहे हैं। नदी के पानी को लेकर बिहार और उत्तर प्रदेष में भी आसन्न विवाद के खतरे मंडरा रहे हैं। नेपाल के साथ पानी का विवाद चल ही रहा है। पानी के मुद्दे पर चीन और पाकिस्तान के साथ भी भारत के टकराव बढ़ते जा रहे हैं। सही मायने में देखें तो दक्षिण एषिया में पानी को लेकर बड़े संघर्ष की संभावना दिख रही है। यह संघर्ष कब होगा, कितना होगा, किस प्रकार का होगा और किन-किन के बीच होगा, अभी कठिन है लेकिन संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार होती-सी लगती है।
मसलन हमें यह विचार करना होगा कि आखिर पानी की समस्या का समाधान कैसे किया जाए। भारतीय उपमहाद्वीप के देषों में पानी की कमी कभी नहीं रही। हमारे यहां बारिष खूब होती है और थार के मरूभूमि को छोड़ दिया जाए तो पूरे उपमहाद्वीप में लगभग प्रत्येक साल बारिष हो ही जाती है। हां, वर्षा की मात्रा कम-अधिक है लेकिन होती जरूर है। हालांकि इतिहास में कई-कई वर्षां तक बारिष नहीं होने के प्रमाण भी मिले हैं लेकिन अमूमन पानी की समस्या अन्य देषों की तुलना में अपने यहां कम रही है। खासकर भारत के पास पानी की समस्या तो होनी ही नहीं चाहिए। मानसून के कारण हमारे यहां बारिष होती है। हां, बारिष का वितरण अव्यवस्थित है। जल विज्ञानियों की मानें तो बारिष के पानी को नियंत्रित और व्यवस्थित कर दिया जाए तो देष में पानी की कोई समस्या नहीं रहेगी। लेकिन नौकरषाही और गलत तकनीकी उपयोग के कारण देष का पानी जाया हो रहा है और कुछ इलाके पानी के कारण परेषान हैं, तो कुछ इलाकों में पानी के लिए हाहाकार है। इसलिए हमें पानी के उपर बड़ी गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
पंजाब, हरियाणा आदि उत्तर भारत के राज्यों में 50 से लेकर 100 सेंटीमीटर तक की बारिष होती है। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेष, बंगाल, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में 200 से लेकर 500 सेंटीमीटर तक की वर्षा होती है। पूर्वोत्तर के राज्यों में 500 से लेकर 1000 सेंटीमीटर तक वर्षा होती है और यही हाल पष्चिमी घाट के पष्चिमी ढलान पर भी है। मलयगिरी से लेकर रत्नागिरी तक के इलाके में जबरदस्त बारिष होती है। वहीं पष्चिमी घाट का पष्चिमी ढलान वृष्टिछाया में पड़ जाता है और वहां बारिष कम होती है। गुजरात और राजस्थान में थार वाले रण को छोड़ दिया जाए तो अब अच्छी बारिष होने लगी है। महाराष्ट्र का हाल भी कुछ इसी प्रकार है। वैज्ञानिक अनुमान में बताया गया है कि आने वाले समय में भारत के पास कुल 200 मिलियन हेक्टेअर कृषि योग्य भूमि का विस्तार होगा लेकिन अभी हमारे पास 123.2 मिलियन हेक्टेअर भूमि खेती के लिए उपयोग में आ रहा है। इसमें से मात्र 86.27 मिलियन हेक्टअर भूमि पर ही सिंचाई की सुविधा हो पायी है। इसमें से मात्र 30 प्रतिषत भूमि पर ही नहरों का पानी उपलब्ध हो पाता है, शेष भूमि पर नलकूपों के द्वारा सिंचाई की जाती है। इससे भूमिगत जल का बड़ी तेजी से ह्रास हो रहा है, जो अने वाले समय में बड़ी समस्या खड़ी करने वाली है।
कुल मिलाकर देखें तो जो अभी हमारे पास तकनीक है उसमें हम पानी जहां है वहां से दूसरे क्षेत्रों के लिए पानी उपलब्ध करा रहे हैं। वह भी आसानी से अगर हो जाता है तो ठीक है नहीं तो विषेष योजना नहीं बना रहे हैं। जैसे गंगा और यमुना का पानी हम दिल्ली को उपलब्ध करा रहे हैं। नर्मदा के पानी को लेकर पहले योजना यह बनी थी कि नर्मदा, ताप्ती आदि नदियां जिस खाड़ी में गिरती है उस खाड़ी को ही बांध दिया जाए और उस पानी का उपयोग कर सौराष्ट्र से लेकर दक्षिण राजस्थान तक को पानी उपलब्ध करा दिया जाए लेकिन गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार ने उस योजना को ठंढे बस्ते में डाल दिया और उसके स्थान पर मात्र नर्मदा पर डैम बनाकर एक अव्यवस्थित और अव्यावहारिक योजना तैयार की गयी जिसका आने वाले समय में व्यापक दुष्प्रभाव देखने को मिलेगा। यही स्थिति भाखड़ा-नंगल के साथ है। अब बिना किसी वैज्ञानिक सोच के मध्य प्रदेष में सोन नदी के उपर डैम बना दिया गया। नदी के अपवाह तंत्र के इतिहस को बिना परखे जाने काम तो कर दिया गया लेकिन उसका खामियाजा इस बार बिहार को उठाना पड़ा और आनन-फानन में बाढ़ के कारण बिहार की बड़ी क्षति हुई। आगे भी इस प्रकार की समस्या आने वाली है। इसी प्रकार की कुछ स्थिति भारत-नेपाल सीमा के बिहार वाले क्षेत्र में देखने को मिलती है। हालांकि नारायणी पर जो डैम बनाया गया उसका अधिकतर रखरखाव भारत सरकार के जिम्मे है लेकिन बागमती और कोसी के डैम का रखरखाव नेपाल के हिस्से है। दोनों नदियों पर बना डैम नेपाल की सीमा में है। इसलिए उसपर नेपाल सरकार की ज्यादा चलती है और भारत की कम। नेपाली क्षेत्र में जैसे ही पानी का दबाव बढ़ता है नेपाल सरकार बिना किसी परवाह के फाटक खोल देती है और इधर उत्तर बिहरा पानी-पानी हो जाता है। अब एक नया लफड़ा महानंदा नदी पर होने वाली है। उड़ीसा सरकार का कहना है कि छत्तीसगढ़ में बन रहे बांध के कारण उड़ीसा में जल संकट का आना तय है। इसलिए या तो बांध न बने या फिर पानी बटवाड़े पर तसल्ली से समझौता हो।
जल संसाधन के मामले में देष का कानून भी विसंगतिपूर्ण है। संपूर्ण पानी पर संपूर्ण देष का अधिकार माना जाता है। हमारे पास कितना पानी है उसका हम केवल अनुमान लगा सकते हैं। पानी के बटवाड़े पर इस प्रकार के कानून हितकर नहीं हैं। इसलिए पानी की समस्या के समाधान के लिए यदि भारत, पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेष, भूट्टान, नेपाल आदि उपमहाद्वीप के देष इकट्ठे होकर सोचें और समाधान ढुंढें तो समाधान संभव है अन्यथा आने वाले समय में पानी पर लड़ाई को कोई रोक नहीं सकता है।
जहां तक पंजाब और हरियाणा की समस्या है तो पंजाब को पानी तो देना ही होगा क्योंकि पंजाब पानी का श्रोत नहीं है यह केवल रास्ता मात्र है। रही बात खेती की तो पंजाब और हरियाना के किसानों को अधिक पानी वाले खेती से मुंह मोड़ना ही पड़ेगा क्योंकि इसके कारण भूमिगत पानी का उपयोग ज्यादा होता है। यहां के किसान कम पानी वाले अनाज की खेती करें। क्योंकि यहां धान की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु नहीं है। भारत सरकार को इस मामले को भी सुलझाना होगा। क्योंकि किसी दूसरे प्रद्रेष से पानी लेकर अधिक पानी वाली खेती ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकती है। उसी प्रकार जिस क्षेत्र में ज्यादा पानी है वहां कम पानी वाले अनाज की खेती रोकनी ही होगी। ऐसे में अमेरिका की तरह भारत में भी कृषि पेटी का विभाजन जरूरी है। अमेरिका में प्रो. रूजवेल्ट ने अमेरिकी कृषि योग्य भूमि का अध्यन करा कर उसे कृषि पेटी में विभाजित कर दिया था। इसका व्यापक असर हुआ और अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा अन्न उत्पादक देष कई वर्षों तक बना रहा। प्रो. रूजवेल्ट भूगोलवेत्ता थे और उन्होंने योजनाओं में भूगोलविदों को शामिल किया था जबकि हमारे देष में किसी भी योजना में भूगोलविदों को शामिल नहीं किया जाता है। खैर फिलहाल तो पानी की समस्या के समाधान के लिए सरकार को सोचनी चाहिए।     

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