ईसाई और इस्लाम संगठित रणनीति के कारण धर्मातरण में हो रहे हैं सफल

गौतम चौधरी 
धर्मातरण मामले में अचूक रणनीति की कमी ङोल रहा है संघ
धर्म या मान्यता निहायत निजी मामला है। इसे बदलने का हर किसी को अधिकार है। कोई किस मान्यता में विश्वास करेगा यह उसके खुद पर निर्भर होना चाहिए। इस मामले में भारत सदा से सहिष्णु रहा है। सनातन भारत में हर के अपने अपने भगवान होते थे। इन दिनों धर्मातरण या फिर मतांतरण पर जबरदस्त बहस छिरी हुई है। हिसार जिले के एक गांव में कथित रूप से कुछ दलित इस्लाम स्वीकार कर लिये। उनका आरोप है कि गांव के ही अगड़ी जाति के लोगों ने उनके साथ अन्याय किया है। उस अन्याय के खिलाफ न्याय की गुहार लेकर वे न केवल प्रशासन के पास गये अपितु कई सामाजिक संगठनों के साथ भी उन्होंने संपर्क किया लेकिन न्याय नहीं मिली। अब वे इस्लाम स्वीकार लिये हैं और इस्लाम में वे अपने को ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। इसी से मिलती जुलती एक खबर अमर उजाला में मैंने पढी थी। स्टोरी पत्रकार सत्येन्दर सिंह बैंस की थी। हिन्दू जोशी ब्राह्मण मता-पिता का संतान अनाथ होने के बाद मदरसा में जाकर रहने लगा। वहां उसकी इस्लामी ढंग से पढाई हुई और वह मुस्लमान हो गया। आज वह ईत्र का बारोबार करता है और बड़े मजे से दुनियाभार में घुमता है। बैंस की स्टोरी के अनुसार वह रसूकदार भी हो गया है। जब संबंधित संवाददाता ने उससे हिन्दू धर्म में फिर से आने की बात पूछी तो उसने एकदम से ना कर दिया। पूवरेत्तर तो मैं नहीं गया हूं लेकिन झारखंड के सुदूर क्षेत्रों का भ्रमण किया है। मैंने अपनी आंखों से देखा है, जहां ईसाई पंथ का प्रभाव है वहां सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास साफ झलकता है। वहां शिक्षा का स्तर बढियां है। वहां आधारभूत संरचनाएं भी दिखती है लेकिन जहां सरना या हिन्दू अदिवासी निवास करते हैं वहां बेहद गरीबी है। वहां ईसाइयों को मिशन कहा जाता है और हिन्दुओं को सरना लेकिन जहां सरना धर्म के मानने वाले लोग हैं वहां बेहद किल्लत की जिंदगी जीने के लिए लोग विवस हैं परंतु ईसाई क्षेत्रों में विकास स्वाभाविक रूप से दिखता है। एक बार मुजफ्फरपुर, बिहार में मैं कल्याण छात्रवास  गया। अपने छात्र जीवन में वहां मैं बराबर जाया करता था। कुछ पुराने साथी अभी भी वहां डटे थे। उनसे जब मिला तो उन्होंने अपनी समस्या बताई। उन्होंने बताया कि विगत दो सालों से एक प्रोटेस्टैंट ईसाई पादरी कल्याण छात्रवास में अंग्रेजी की नि:शुल्क कोचिंग चला रहा है। उसके प्रभाव के कारण कई छात्र ईसाई हो गये हैं। छात्रवास के छात्रों ने बताया कि राजेश पासवान का तो पूरा परिवार ईसाई हो गया है। उसकी बहन को ईसाई मिशनरियों ने कही बाहर पढने के लिए भेज दिया है और राजेश अब ईसाई मिशनरियों के लिए काम करता है, सो आप उसे समझाओ। छात्रवास के लड़कों के कहने पर मैं उसे सझाने भी गया, पर वह मुझसे कई ऐसे प्रश्न पूछे जिसका जवाब मेरे पास नहीं था। अंत में मैं उसे यह कहकर वापस आ गया कि आप शैलेश के संतान हैं न कि जिसस के। आपकी परंपरा समृद्ध रही है और आप अमृत के पुत्र हैं, पर यह तो रटी रटाई बात है, जो हर हिन्दू कहता है, परंतु राजेश के पास जो प्रश्न हैं, उसका जवाब हमारे पास नहीं है। मेरे व्यक्तिगत जीवन में इस प्रकार के अनुभव हैं, जिसे उदाहरण के तौर पर मैंने प्रस्तुत किया है। आज के विमर्श का हमारा विषय धर्मातरण है। 

भारतीय चिंतन के अनुसार धर्म या पंथ निहायत निजी विषय है। इसे अन्य प्ररिपेक्ष्य में देखें तो इसका स्वरूप राजनीतिक हो जाता है। अनवर शेख लिखते हैं कि इस्लाम न तो धर्म है और न ही पंथ है, यह एक अरब राजनीतिक आन्दोलन है। ईसाई पंथ के ताना-बाना को भी देखने पर ऐसा कुछ लगता है लेकिन वह इस्लाम की तुलना में ज्यादा मानवीय और लचीला है। वर्तमान विश्व में इसी तीन प्रकार के धर्म कहें या पंथ का प्रचलन है, अन्य छोटी छोटी पांथिक ईकाइयां इन्हीं तीन चिंतनों का उपांग कहा जा सकता है। मुङो याद है एक बार मैं विकास भारती नामक संगठन के प्रधान संरक्षक अशोक भगत जी से मिलने विष्णुपुर गया था। उनकी पृष्टभूति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की है। उन्होंने बताया कि सन् 1973 में बेतला, पलामू के एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंवेक संघ के वरिष्ठ प्रचार भावराव देवरस जी आए थे। उस कार्यक्रम में संघ के कुछ कार्यकत्र्ताओं ने उनके सामने अपनी व्यथा रखी कि हम समाज में काम करते हैं लेकिन जिस हिन्दू धर्म के लिए हम काम करते हैं, उसकी संख्या बड़ी तेजी से घट रही है। आदियासियों को बड़े पैमाने पर ईसाई बनाया जा रहा है। यह बात भावराव जी को जच गयी और उन्होंने योजना बनाकर वनवासी कल्याण आश्रम की आधाशिला रखने का व्रत ले लिया। इसी बैठक के बाद संघ ने धर्मातरण रोकने के लिए बड़े पैमाने पर योजना बनाई और अपने कई मेधावी कार्यकत्र्ताओं को इस काम में लगाया। उसका प्रतिफल भी मिला और उसी के प्रतिफल से आज पूवरेत्तर भारत का माहौल हिन्दुत्व के लिए थोड़ा सकारात्मक हुआ है। प्रेक्षक तो यहां तक कहते हैं कि झारखंड में भाजपा की सरकार लाने में इस संगठन की बड़ी भूमिका रहती है। 

आए दिन हर मोर्चे पर संघ संगठित रूप से या संघ का कोई कार्यकत्र्ता व्यक्तिगत रूप से हिन्दुओं के धर्म पर्वितन के खिलाफ अभियान चलाता दिख जाता है। यह अछी बात है लेकिन संघ के इस पूरे अभियान में जो बड़ी खामी है उसे संघ अभी तक समझ नहीं पा रहा है। मेरे व्यक्तिगत अध्यन में यह लगा कि संघ के लोगों ने धर्मातरण के खिलाफ जो ततपरता दिखाई है उसमें कही न कही बहुसंख्यक स्वार्थ की बू आती है। मैंने अपनी आंखों से रांची में फादर डीब्रोबर को स्थानीय आदिवासियों की सेवा करते देखा है। कई ईसाई संस्थाओं को मैं जाकर देख आया हूं। उनकी योजना बड़ी व्यवस्थित और अचूक होती है, जबकि संघ की योजनाओं में मुङो कई प्रकार की खामियां दिखी। मैंने क्षेत्र में संघ की संस्थाओं के नेताओं में कई प्रकार के अंतरद्वान्द्व देखे। दूसरी बात यह है कि जब मामला हाथ से बिल्कुल ही निकल जाता है तब संघ के लोग वहां पहुंचते हैं। जैसे अभी झारखंड और पूवरेत्तर में संघ का बड़ा जोर है लेकिन जिन नये क्षेत्रों में ईसाई या इस्लाम के अनुयायी अपना प्रचार कर रहे हैं वहां संघ अभी नहीं पहुंच पाया है। बड़े पैमाने पर दलित इस्लाम या ईसाई के टारगेट में हैं लेकिन कुल 86 साल काम करने के बाद भी संघ ने आज तक दलित हिन्दू नेतृत्व नहीं खड़ा कर पाया है जो समाज का सांस्कृतिक नेतृत्व कर सके। याद रहे जबतक दलितों और आदिवासियों को धर्म में हिस्सेदारी और भागिदारी सूनिश्चित नहीं की जाएगी, तबतक वे हिन्दुत्व को अपना नहीं मानेगा। हमारे देश में गैर ब्राह्मण संतों की व्यापक परम्परा रही है लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उसको प्रचारित करने में असफल रहा है। मैं देखता हूं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जोड़ मराठी संतों पर ज्यादा हाता है जबकि संत तो पूरे देश में हुए हैं। इसिलिए रामानंद स्वामी को कहना पड़ा था, जाति-पाति पूछे नहीं कोई हरि के भजे सो हरि का होयी। यदि बिना किसी राजनीतिक या अन्य किसी स्वार्थ के दलित और आदिवासियों को हिन्दुओं से कटने से बचाना है तो सबसे पहले उन्हें हिन्दुत्व के धार्मिक क्षेत्र में हिस्सेदारी सूनिश्चित करनी होगी। फिर जहां ईसाई या इस्लाम बन चुके हैं वहां काम करने का बहुत सीमित लाभ होगा, काम वहां किया जाये जहां ईसाई या इस्लाम अपना पैर पसारने के फिराक में है। हिन्दुवादी संगठन सतही और बाहरी तौर पर इस दिशा में काम करती है, जबकि जो लोग इस क्षेत्र में काम करने में माहिर हैं उसे किसी न किसी रूप से काम करने से रोक दिया जाता है। मैं संघ के एक प्रचारक सम्मानीय श्यामजी गुप्त को जानता हूं, जिसकी योजना यदि ठीक से चली होती तो आज झारखंड का चित्र बदल गया होता लेकिन उनका स्थानांतरण कर दिया गया और उनके द्वारा बनाई गयी उन दिनों की सारी योजना कमजोर पड़ गयी। उसी प्रकार कारण चाहे जो हो स्वामी असीमानंद को फसा दिया गया, जिसके कारण डांग और नर्मदा जिले में धर्मातरण पर जो रोक लगी थी उसे स्थाई नहीं रखा जा सका। पूज्य लक्ष्मणानंद की हत्या कर दी गयी लेकिन उनके स्थान पर उसी के टक्कर का कोई संगठनकर्ता खड़ा नहीं हो पाया। आदरनीय एकनाथ जी राणाडे ने एक बड़ा आन्दोलन चलाया लेकिन उनका आन्दोलन अब कुंद पड़ता जा रहा है। आठवले जी ने भी उसी प्राकर का आन्दोलन खड़ा किये लेकिन वह भी अब कमजोर पड़ने लगा है। कुछ लोग आज भी लगे हुए हैं लेकिन उनको जो सहयोग मिलना चाहिए वह नहीं मिल पा रहा है। गलती चाहे जिसकी हो लेकिन कही न कही प्रयास में तो कमजोरी हो रही है।
मैं नेपाल के तराई वाले इलाके में गया था वहां मैंने देखा 100 किलोमीटर की परिधि में एक भी अस्पताल नहीं है। विद्यालय का तो कही नामोनिशान तक नहीं दिखा। अब आजकल नेपाल में जो संघ का मिशन है वह पहाड़ केन्द्रित है, जबकि अब सूनियोजित तरीके से धर्मातरण तराई में हो रहा है। तराई में बिस्फोटक स्थिति हो जाएगी तो फिर हाय-तौवा मचाया जाएगा। यही स्थिति बगहा के थरहट क्षेत्र में है। वहां भी संघ का काम बड़ी कमजोर स्थिति में है। संघ के द्वारा यहां ज्यादा जोर धर्मातरित को फिर से धर्म के साथ जोड़ने पर लगता है जबकि होना यह चाहिए कि पहले अपने लोगों को बचाया जाये फिर जो बदल गये हैं उसपर दिमाग लगाया जाये लेकिन संघ की रणनीति में यह नहीं है। हां बिहार धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुनाल ने छोटा ही सही पर अपने स्तर पर जबरदस्त काम किया है। यदि संघ उससे कुछ सीखे और धार्मिक कर्मकांडों में दलित या ब्राह्मणोतर जातियों को भी साथ लिया जाये तो व्यापक पैमाने पर इसका प्रतिफल मिलेगा और इससे हिन्दू समाज संगठित ही नहीं समृद्ध भी होगा।

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