केवल नागा हितों पर नहीं संपूर्ण पूवरेत्तर के हितों पर ध्यान दे केन्द्र


गौतम चौधरी 
नागा कूटनीति के जाल में न फसे मोदी सरकार
पूवरेत्तर के सबसे प्रभावशाली उग्रवादी संगठन, नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागा (एनएससीएन) इसाक चिसी सू एवं थुइंग्लैंग मुइवा गुट ने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में नये सिरे से केन्द्र के साथ समझौता किया है। यह समझौता समाचार माध्यमों में जबरदस्त तरीके से सुर्खियां बटोरता दिखा। लगभग हर समाचार माध्यमों ने इस खबर को प्रमुखता के साथ सार्वजनिक किया। समाचार वेिषण के माध्यम से भी यह प्रचारित किया जा रहा है कि अब पूवरेत्तर के चरमपंथी मुख्यधारा के साथ जुड़ने लगे हैं। इस प्रचार में कितना दम है, आज के हमारे वेिषका का विषय यही है। 

इस मासले पर और कई प्रकार के आकलन आने बांकी हैं। लिहाजा थोड़ा इंतजार हमें करना चाहिए, अभी तुरंत यह कह देना जल्दबाजी होगा कि हमने पूवरेत्तर में शांति स्थापित कर ली है। सर्व प्रथम नागा विद्रोह के इतिहास को देखना पड़ेगा। पवरेत्तर सात राज्यों का समूह है। ये सारे राज्य कभी असोम राज्य के अंग हुआ करते थे। यहां यह भी बता देना उचित रहेगा कि जिस गुट के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने समझौता किया है वह गुट उसी समूह का अंग है जो अपने स्थापना काल से ही नागा पृथक्ता की बात करता रहा है। पूवरेत्तर के संघर्षरत आतंकी समूह और सक्रिय बुद्धिजीवियों का कहना है कि सुभाष चंद्र बोस की सेना, आजाद हिंद फौज ने पूवरेत्तर को जीत लिया था और हम ब्रिटिस भारत से आजाद हो चुके थे, इसलिए ब्रितानी सरकार को हमारे साथ समझौता करने का कोई अधिकार नहीं था। चूकी भारत ब्रितानी सरकार के द्वारा स्थापित एक संघीय प्रणाली है इसलिए हमारा भारत सरकार के साथ कोई लेना-देना नहीं है। हम स्वतंत्र हैं और शेष भारत से हमारा कोई राजनीतिक संबंध नहीं है। इसी सिद्धांत के आधार पर ही नागावादी नौ नेताओं ने 14 अगस्त सन् 1947 को आजादी की घोषणा कर दी थी। उस घोषणा के नेतृत्वकर्ता एजेड फिजो थे। फिजो ने ही नागा नेशनल कॉउंसिल की स्थापना की और वही कॉउंसिल बाद में नागा विद्रोह का आधार बन गया। एनएससीएन चाहे वह आई-एम गुट हो या फिर खापलांग गुट उसी कॉउंसिल के निक्षेप पर बना चरमपंथी संगठन है। प्रधानमंत्री जिस गुट के साथ समझौता किये हैं नि:संदेह वह पूवरेत्तर का सबसे बड़ा आतंकवादी संगठन है। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि इस संगठन के पास एक बड़ा सामाजिक आधार और सांगठनिक ताना-बाना भी है लेकिन इस संगठन के साथ यदि समझौता हो रहा है तो सरकार को यह बात देश को बताना होगा कि आखिर किन-किन मुद्दों पर एनएससीएन आई-एम के साथ समझौता किया गया है। जानकारी में रहे कि जिस आतंकी गुट के साथ भारत सरकार का समझौता हुआ है वह गुट अपने स्थापना काल से ही पृथक्तावादी मनोवृति से ओतप्रोत रहा है। ये सदा से यह मांग करते रहे हैं कि नागा वाहुल्य क्षेत्रों को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत सरकार मान्यता प्रदान करे। हालांकि सन् 1988 में इस गुट के नेताओं ने भारत सरकार के साथ थोड़ा लचिला रवैया अपनाया और उसी समय से स्वतंत्रता के बदले स्वायतता की बात की जाने लगी लेकिन नागा विद्रोहियों में इस बात को लेकर एक मत है कि पूवरेत्तर के नागा क्षेत्र को मिलाकर एक अलग नागालिम नामक राज्य का गठन किया जाये, जिसको अधिक से अधिक स्वायत्ता प्रदान की जाये। इसी मांग को मानते हुए अटल विहारी बाजपेयी की सरकार ने एक समझौते की प्रक्रिया प्रारंभ की थी लेकिन जैसे ही यह समझौता परवान चढता वैसे ही अरूणांचल प्रदेश, असोम और मणिपुर ने इस योजना का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। यही नहीं इन राज्यों में अन्य आदिवासी संगठनों ने अलग से हथियार उठा लिया और नागा विद्रोहियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। यह 2003 की घटना है। उस समय बड़े पैमाने पर नागा वाहुल्य क्षेत्र के अन्य तीन राज्यों के आदिवासियों में भयंग युद्ध प्रारंभ हो गया था। हालांकि संगठित होने के कारण इन क्षेत्रों में नागा भारी पड़ने लगे और अन्य आदिवासियों का वहां से पलायन होने लगा। हजारों की संख्या में अन्य अदिवासी मारे जाने लगे। उन दिनों बाजपेयी सरकार के उस मसौदे का जबरदस्त विरोध हुआ और उसे ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। अब फिर से असोम, अरूणांचल प्रदेश और मणिपुर के मुख्यमंत्रियों ने उसी प्रकार की आशंका जताते हुए भारत सरकार के साथ नागा विद्रोही गुट के समझौते का विरोध किया है। यदि यह समझौता नागा विद्रोही गुट के मनोकूल हुआ तो एक बार फिर से पूवरेत्तर में लड़ाई प्रारंभ होगी। इसलिए भारत सरकार को चाहिए कि जो तीन मुख्यमंत्रियों ने अपनी आशंका जताई है उनकी आशंकाओं का अविलम्ब समाधान ढुंढा जाये। इसमें किसी प्रकार की कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। यदि गलतफहमी हुई तो इसके दूरगामी प्रभाव खतनाक भी हो सकते हैं। 

यदि नागा विद्रोहियों की रणनीति पर ध्यान दें तो पूवरेत्तर में जो संकेत मिल रहे हैं वह संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। केन्द्र में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनते एनएससीएन खापलांग गुट ने सराकर के साथ युद्ध विराम समझौते को खारिज कर लड़ाई की घोषणा कर दी। इसे प्रेक्षक केन्द्र सरकार पर दबाव के रूप में देख रहे हैं। दूसरा गुट केन्द्र के साथ समझौता करके यह जताना चाहता है कि नागा विद्रोही मुख्यधारा में आना चाहते हैं लेकिन उनकी जो मांग है उसे केन्द्र सरकार मान ले। उनकी मांगों को मानने का मतलब है पूवरेत्तर के अन्य राज्यों के साथ नये प्रकार की लड़ाई मोल लेना। इसलिए यह वेहतर होगा कि नागा विद्रोहियों के साथ उनके मांगों के आधार पर नहीं संपूर्ण पूवरेत्तर के हित को ध्यान में रखकर समझौता हो। दूसरी बात! यह भी याद रहे कि नागा आतंकवादी को न केवल चीन का समर्थन प्रप्त है अपितु उसके समर्थक संयुक्त राज्य अमेरिका की राजनीति में भी धमक रखते हैं। नागा आतंकवादी अपने विश्व विभाग को संचालित करने के लिए अमेरिका के न्यूयार्क शहर में एक कार्यालय भी खोल रखा है। विगत छे दशकों से ईसाई विश्व, भारतीय उपमहाद्वीप में ईसाई देश के निर्माण के लिए प्रयास कर रहा है। श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों को भी इसी आधार पर ईसाई देशों से समर्थन मिल रहा था लेकिन वहां जाफना ईसाई देश नहीं बन पाया, पर नागालिम के लिए ईसाई मिशनरी लम्बे समय से प्रयास कर रहा है। केन्द्र सरकार को इन विषयों पर भी गौर करना चाहिए और नागा विद्रोहियों के जाल में नहीं फसना चाहिए। हालांकि पूवरेत्तर के तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को केन्द्रीय गृहमंत्रलय ने आस्वस्त कर दिया है कि उन्हें विश्वास में रखकर ही कोई कदम उठाया जाएगा लेकिन इस बीच भाजपा के नेताओं का बेहद गैर जिम्मेदाराण बयान आया है कि कांग्रेस अपने शासन काल में किसी मुख्यमंत्री से समझौते को लेकर कोई राय नहीं लेती थी। यह बयान ठीक नहीं है और इससे न केवल भाजपा की छवि खड़ाब होगी, अपितु इससे पवरेत्तर ही नहीं अन्य राज्यों में सक्रिय पृथक्तावादियों को केन्द्र के खिलाफ प्रचार का हथियार भी मिल जाएगा। इसलिए यदि कोई प्रतिपक्षी सुरक्षा को लेकर राजनीति कर रहा है तो उहें करने देना चाहिए लेकिन सत्तापक्ष को संयमित एंव संतुलित बयान देना चाहिए, जिससे क्षेत्र में शांति बनी रहे और देश की अखंडता पर कोई खतरा न हो। 

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