पंजाब में भी गैरपारंपरिक राजनीति की ओर बढ रही है भाजपा

गौतम चौधरी 
कैप्टन अमरिन्द्र तलाश रहे हैं नयी राजनीतिक जमीन
इन दिनों पंजाब में एक नये प्रकार का राजनीतिक समिकरण बनता दिख रहा है। जहां एक ओर अखिल भारतीय कांग्रेस के कद्दाबर नेता कैप्टन अमरेन्द्र सिंह पार्टी से नाराज बताये जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर सत्तारूढ गठबंधन अकालियों का भाजपाइयों के साथ अन-बन जगजाहिर हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी के सूत्रों की मानें तो इस बार के आसन्न पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी 65 विधानसभा क्षेत्रों पर अपना दावा ठोकेगी और यदि अकालियों ने इस मामले में आनाकानी किया तो गठबंधन टूट भी सकता है। इस परिस्थिति में सवाल यह है कि क्या भाजपा अकेले चुनाव लड़ेगी या फिर किसी अन्य नये राजनीतिक साथी को आजमाएगी? 

जानकारों का कहना है कि नशों के मामले में सत्तारूढ गठबंधन के दोनों दलों के बीच की तल्खी अभी पूर्ण रूपेण खत्म नहीं हुई है। भाजपा के एक बड़े तबते का मानना है कि प्रदेश अध्यक्ष कमल शर्मा का नाम नशों के कारोबारियों के साथ जोड़ा जाना, कही न कही अकालियों की राजनीतिक चाल है। अकालियों के इस चाल को मात देने के लिए भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व पंजाब अध्यक्ष कमल शर्मा के त्याग-पत्र पर बड़ी संजीदगी से विचार कर रहा है। भाजपा का जो राजनीतिक रोडमैप तैयार किया गया है, वह यह है कि कमल शर्मा से त्याग-पत्र लेकर अकाली नेताओं पर दबाव बनाया जाये और नशों के मामले में बेहद चर्चित अकाली नेता एवं काबीना मंत्री सरदार बिक्रम सिंह मजीठिया को पंजाब मंत्रिमंडल से हटाने की पूरी कोशिश की जाये। सवाल यह उठता है कि क्या बादल परिवार भाजपा के दबाव में आएगा? दूसरी ओर पंजाब की पूर्व मुख्यमंत्री एवं पंजाब कांग्रेस की कद्दाबर महिला नेता बीबी राजिन्द्र कौर भट्टल अप्रत्याशित ढंग से सक्रिय हो गयी है और कैप्टन अमरिन्द्र सिंह के खिलाफ बयानबाजी करने लगी हैं। इस बयानबाजी को सहज नहीं बताया जा रहा है। अंदर का खेल चाहे जो हो लेकिन पूरे मानसून सत्र में कांग्रेस के उपनेता कैप्टन अमरिन्द्र संसद भवन नहीं गये। वे पंजाब की राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होंने खुद अपनी यात्र तय की और खुद ही राजनीतिक यात्र पर निकल गये। अपने कार्यक्रम को लेकर कैप्टन ने न तो स्थानीय नेतृत्व से राय-मशविरा की और न केन्द्रीय नेतृत्व को विश्वास में लिया। लिहाजा जब कुछ पत्रकारों ने इस मामले को लेकर कैप्टन से सवाल किया तो उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि मैं कोई बच्च नहीं हूं कि सारे मामलों के लिए केन्द्र से अनुमति लूंगा। मुङो पता है पंजाब कांग्रेस का हित क्या है। इसी प्रकार का सवाल जब तत्कालीन पंजाब कांग्रेस प्रभारी डॉ. शकील अहमद खान से पूछा गया तो उन्होंने कैप्टन को कांग्रेस का कद्दाबर नेता बताया लेकिन अपने जवाब में उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि कैप्टन के कार्यक्रम की उन्हें कोई आधिकारिक सूचना नहीं है, ऐसे समाचार माध्यमों से उनको कार्यक्रम की जानकारी मिली है। यही कारण है कि कैप्टन के कार्यक्रम में केन्द्रीय नेतृत्व का एक भी नेता नहीं दिखा। जहां मानसून सत्र के दौरान दिल्ली में पूरी कांग्रेस केन्द्र सरकार के खिलाफ संघर्ष कर रही थी वही संसद भवन में कांग्रेस के उपनेता कैप्टन अमरिन्द्र सिंह पंजाब में अपनी सियासी जमीन मजबूत करने में लगे थे। खबर तो यहां तक आ रही है कि इस कृत्य से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी कैप्टन से खासे नाराज हैं और किसी कीमत पर पंजाब कांग्रेस की कमान कैप्टन को दिये जाने के पक्ष में नहीं हैं। 

सियासत के चूल्हे दोनों ओर से गर्म है। जहां एक ओर अकाली और भाजपा आपस में उलङो पड़े हैं, वही दूसरी ओर कांग्रस में महासंग्राम छिड़ा हुआ है। संभवत: इसी राजनीतिक नुकसान की भरपायी के लिए कैप्टन इन दिनों भाजपा के प्रति नरम रूख अपना रहे हैं। हाल के दिनों में कैप्टन जितना अकालियों के खिलाफ आक्रामक दिखे, उतना भाजपा के प्रति नहीं। मसलन उन्होंने कई मामलों में केन्द्र की भाजपा सरकार का समर्थन भी किया है। दो मामले तो लोगों के सामने है। पहला फ्रांस के साथ रॉफेल लड़ाकू विमान डीम और दूसरा जीएसटी का मामला। इससे राजनीतिक गलियारों में इस बात की जबरदस्त चर्चा है कि कही कैप्टन अमरिन्द्र भाजपा के पाले में जाने की योजना तो नहीं बना रहे हैं। इसे कांग्रेस नेतृत्व को दबाव में लाने की कैप्टन की चाल के रूप में भी देखा जा रहा है लेकिन कैप्टन के इस चाल से अकाली जिस तरह बौखलाये हुए हैं, उससे यह साफ हो रहा है कि कैप्टन और भाजपा के बीच कोई न कोई खिचड़ी जरूर पक रही है। इस मामले में पूछे जाने पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता बड़ी सतर्कता से बोलते हैं और कहते हैं कि इस बार भाजपा कम से कम 65 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा करेगी और अकाली इस मामले में अड़ंगा लगाये तो दूसरे विकल्प पर विचार किया जाएगा। इधर कैप्टन के नजदीकी सूत्रों से जानकारी मिली है कि अगर कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व कैप्टन को पंजाब की कमान से बेदखल किया तो वे कांग्रेस को छोड़ देंगे और अपनी पार्टी बनाकर भाजपा के साथ समझौता कर सकते हैं। कैप्टन इस बार की सियासी यात्र के दौरान यही जांचने की कोशिश की है कि वे अपने दम पर विधानसभा की कितनी सीटें जीत सकते हैं। कैप्टन के निकट-सूत्रों की मानें तो कैप्टन को यह विश्वास हो गया है कि वे अपने दम पर कम से कम 40 विधानसभा की सीट जीत सकते हैं। इस मामले में प्रेक्षकों का कहना है कि अगर कैप्टन भाजपा के साथ गठबंधन कर लेते हैं तो वह गठबंधन पंजाब की राजनीतिक का स्वरूप बदल देगा और संभव है कि अकाली राजनीति के क्षत्रप का निशाकाल प्रारंभ हो जाये।    

ऐसे विगत दो दिनों से पंजाब कांग्रेस अपने राजनीतिक गतिरोधों को समाप्त करने की पूरी कोशिश कर रही है। तीनों बड़े नेता दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं। दिल्ली में हो रही बैठक की दिशा क्या होगी भविष्य बताएगा लेकिन इतना तय है कि कैप्टन को यदि कांग्रेस ने पंजाब की कमान नहीं दी तो कैप्टन पंजाब में नये राजनीतिक समिकरण की रणनीति बनाने में कोई चूक नहीं करेंगे। इधर भाजपा भी समय की नजाकत को समझ रही है। उसे अब पारंपरिक राजनीति से ज्यादा गैरपारंपरिक राजनीति प्रभावी दिख रहा है। भाजपा, केन्द्रीय आम चुनाव में भी नये प्रयोग के साथ मैदान में उतरी थी। हरियाणा और महाराष्ट्र में तो भाजपा ने अपने पारंपरिक मित्र को एकदम से छोड़ दिया। बिहार में भी भाजपा पारंपरिक राजनीति के स्थान पर नये ढंग की राजनीति कर रही है। इसलिए इन दिनों जो भाजपा की राजीतिक प्रवृति विकसित हुई है उससे इस अनुमान को बल मिलने लगा है कि भाजपा पंजाब विधानसभा चुनाव में भी गैरपारंपरिक राजनीति के एजेंडे को आगे बढा सकती है।

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