सीरिया, यमन, ईरान और इराक के निर्माण में भारत की सक्रियता जरूरी

गौतम चौधरी
विगत दो-तीन दिनों से सोच रहा था मध्य-पूरव और मध्य एषिया में हो रहे अप्रत्याषित परिवर्तन और उसमें भारत की भूमिका पर कुछ लिखूं पर समय न मिलने के कारण लिख नहीं पा रहा था। इसी बीच एक बड़ी खबर तुर्की से आई, जिसमें बताया गया कि तुर्की में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान रूस के राजदूत की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। पहली नजर में ऐसा लगता है कि इस हत्या के पीछे का कारण निःसंदेह संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के बीच का अंतरद्वंद्व है लेकिन इस हत्या को गंभीरता के साथ देखें तो मामला कुछ और ही नजर आता है।
खैर जब कोई क्षेत्र युद्ध का मैदान हो और उसमें आप काम कर रहे हों तो क्षति उठानी ही पड़ती है। रूस के राजदूत की हत्या को भी उसी रूप में लिया जाना चाहिए लेकिन इसके परिणाम दूरगामी पड़ने वाले हैं। और संभव है कि अब रूस भी अपने प्रतिपक्षियों को उसी की भाषा में जवाब दे। इन तमाम उहापोहों के बीच एक बात तो तय है कि तुर्की अब युद्ध का मैदान बन जाएगा। वहीं दूसरी ओर तबाह कर दिए गए सीरिया, इराक और यमन का पुनर्निर्माण भी असंदिग्ध है। ऐसे में भारत को अपनी भूमिका बड़ी तसल्ली से तय करनी होगी। हमें इराक युद्ध के समय वाली भूमिका में कतई नहीं रहनी चाहिए क्योंकि उससे भारत को कुछ भी मिलने वाला नहीं है।
कुल मिलाकर यहां हमें अपना व्यापारिक हित देखना चाहिए और इस निर्माण में बस अपनी भूमिका किस प्रकार सूनिष्चित हो यही सोचना चाहिए। क्योंकि सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात आदि अरब देषों में अब हमारे पेषेवरों के लिए रोजगार की संभावनाएं कम होती जा रही है। पष्चिम में भी रोजगार की स्थिति क्षणी होने लगी है। ऐसे में मध्य एषिया और मध्य-पूरब में संभावना बनती दिख रही है। क्योंकि अफगानिस्तान के निर्माण में भारत की भूमिका के कारण हमारे पेषेवरों को वहां रोजगार भी मिला और मध्य एषियायी देषों में यह संदेष भी गया कि भारतीय पेषेवर अन्य किसी देष की तुलना में इमानदार और विष्वासी होते हैं। इस इज्जत को एक बार फिर से भुनाने का मौका मिलने वाला है। सीरियायी गृहयुद्ध के कारण सीरिया का तो नाष हुआ ही है साथ में इराक का भी बेहद नुकसान हो चुका है। गृहयुद्ध के कारण यमन को भी घाटा हुआ है। सीरिया सरकार की ओर से रूस की सैन्य कार्रवाई ने आईएसआईएस आतंकवादियों को घुटने टेकने के लिए मजबूतर कर दिया। इधर संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ ईरान के समझौते से ईरान में भी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण की संभावना दिख रही है। वहां लाखों की संख्या में तकनीकी विषेषज्ञ, मजदूर, प्रबंधकों की जरूरत होगी। यही नहीं आने वाले समय में ईरान मध्य एषिया का व्यापारिक द्वार भी बनने वाला है। हाल ही में भारत के साथ ईरान के कई समझौते हुए हैं। यदि वहां के निर्माण में भारत सरकार अपनी भूमिका तय कर लेती है तो इससे भारत को तात्कालिक और दूरगामी, दोनों प्रकार के फायदे होंगे। संभवतः ईरान अपने आप को मैन्यूफैक्चरिंग हब के रूप में विकसित करने की योजना बना रहा है। क्योंकि मध्य एषिया के विकास के लिए जो चीजें चाहिए उसके लिए दो ही रास्ते हैं एक तो रूस के रास्ते संभव है जो बेहद कठिन और मंहगा है लेकिन दूसरा रास्ता ईरान होकर जाता है। यह रास्ता न तो कठिन है और न ही मंहगा। इसलिए आने वाले समय में ईरान मध्य एषिया मध्य-पूरब के लिए एक बड़ी भूमिका प्रस्तुत करने वाला है। ऐसे में भारत को ईरान की भूमिका के साथ अपना संबंध जोड़ लेना चाहिए। साथ ही साथ सीरिया, इराक और यमन में ईरान बड़ी भूमिका निभा रहा है। इन तीनों देषों में प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप में ईरान की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसलिए इन तीनों देषों में आधारभूत निर्माण के समय ईरान की भूमिका अपरिहार्य होगी।
इन तमाम संभावनाओं के बीच हमें महाषक्तियों को भी ध्यान में रखना होगा। बिना रूस की सकारात्मकता के तत्काल इन देषें में प्रषेव पाना बेहद कठिन होगा। हालांकि यहां अमेरिका और पष्चिमी देषों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है लेकिन जो परिस्थितियां बन रही है उसमें रूस की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण दिख रही है। हमारे कूटनीतिज्ञों को चाहिए कि हम ज्यादा से ज्यादा वहां के संसाधनों का विदोहन अपने राष्ट्र के लिए करें। वहां के निर्माण में हमारी भूमिका तय हो। हमारे पास कुषल और पेषेवर श्रम हैं। उस श्रम शक्ति का उपयोग कर हम उन देषों में न केवल अपना प्रभाव जमा सकते हैं अपितु हम वहां से अपने देष और समाज के लिए धन भी कमा सकते हैं।
एक अनुमान के तहत अफगानिस्तान में लगभग 50 हजार भारतीय इस समय हैं और विभिन्न स्तरों पर काम कर रहे हैं। उसी प्रकार सउदी अरब में लगभग पांच लाख भारतीय श्रमिक काम कर रहे हैं। अषांत देषों में हमारी भूमिका बेहद कम है। पष्चिमी देष या रूस भले पैसा लगा दें, उन्हें तकनीक दे दे लेकिन इन देषों में निर्माण के लिए बड़ी संख्या में कुषल और अकुषल मजदूरों की जरूरत पड़ेगी। इस भूमिका को निभाने के लिए भारत को तैयार हो जाना चाहिए और किसी भी सूरत में यह मौका अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। इससे कालांतर में इन देषों के अंदर हम अपनी संस्कृति का भी प्रचार-प्रसार कर सकते हैं। लेकिन यह तभी संभव है जब हमारे कूटनीतिज्ञ अपना दृष्टिकोण सकारात्मक रखेंगे। किसी खास गुट के साथ नहीं चलें और एक स्वाभिमानी राष्ट्र की तरह किसी भी महाषक्ति के दबाव में नहीं आएं। इसके लिए हमें थोड़ तटस्थ भूमिका भी निभानी पड़ेगी क्योंकि महाषक्तियों के अपने पूर्वाग्रह होते हैं और उनकी रणनीति साम्राज्यवादी होती है। चीन हो या रूस या फिर अमेरिका, हमें किसी के दबाव में नहीं आना चाहिए। अपनी रणनीति अपने तरीके से तैयार करनी चाहिए जिसमें हमारी पुरातन संस्कृति की झलक हो, हमारे अपने मूल्यों पर आधारित हो साथ ही थोड़ व्यापारिक भी हो। कुल मिलाकर हमारी रणनीति-कूटनीति अपने खुद के राष्ट्रीय हित में हो। हमें साम्राज्यवादी शक्तियों का न तो हथियार बनना चाहिए और न ही औजार। हम तभी एक कुषल, पेषेवर और आधुनिक भारत का निर्माण भी कर सकते हैं।  

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