बिहार विधान परिषद् चुनाव परिणाम के मायने

गौतम चौधरी 
दोनों गठबंधन नेक टू नेक फाईट में
बिहर विधान परिषद् के हालिया 24 सीटों पर हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एवं उनके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की जीत को इतिहासिक बताया जा रहा है। जिस प्रकार से जीत हुई है वह कायदे से इतिहासिक है भी। लिहाजा इस चुनाव में 12 सीटों पर भाजपा की जीत हुई, जबकि पिछले चुनाव में भाजपा मात्र पांच सीटों पर जीत पायी थी। इस जीत ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पकड़ ढीली पडने का संकेत दे रही है। क्योंकि पिछली बार जनता दल युनाइटेड को 16 सीटें मिली थी और इस बार उन्हें पांच सीटों पर ही संतोष करना पड़ा है। इस चुनाव में लालू प्रसाद यादव को थोड़ी सफलता जरूर मिली है, लेकिन उनके लिए संकेत अछे नहीं हैं क्योंकि वे जिन मतों पर अपनी पकड़ के दावे करते रहे हैं वह इस बार उनके पक्ष में गोलबंद होता नहीं दिखा है। 

बिहार के जीतीय समिकारण को यदि गंभीरता से देखें तो बिहार में इन दिनों एक नये सामाजिक-राजनीतिक ध्रुविकरण का स्वरूप सामने आ रहा है। जहां एक ओर बिहार की अगड़ी जातियों के साथ बनिया समुदाय ध्रुविकृत होते दिख रहे हैं, वही दूसरी ओर अगड़ जातियों के घुर विरोधी दलित समुदाय के लोग को भी उनके साथ आने में परहेज नहीं दिख रहा है। जिसका लाभ आसन्न बिहार विधानसभा के चुनाव में एकमुस्थ भाजपा को मिलना तय माना जा रहा है। उधर इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि लालू प्रसाद यादव का माई (मुस्लिम-यादव) समिकरण बिखड़ने लगा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव थोड़ सुकून देने वाला इसलिए कहा जा सकता है कि कुशवाहा और कुर्मी जाति के लोगों में नीतीश कुमार के प्रति विश्वास में कमी नहीं आयी है। इस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत अगड़ी जातियों की एकता और उसका एकमुस्त भाजपा के प्रति गोलबंदी है जो साबित करने लगा है कि बिहार एक बार फिर से नये चुनावी समिकरण की ओर बढ रहा है।
इस चुनाव ने यह भी साबित कर दिया है कि बिहार भाजपा को यदि जीत चाहिए तो उसके लिए सुशली कुमार कोदी को स्वतंत्र रूप से काम करने की छूट देनी होगी। उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में पेश करना होगा क्योंकि इस चुनाव ने यह भी साबित किया है कि बिहार भाजपा में चमत्कारी नेता केवल और केवल मोदी ही हैं और अन्य के पास मोदी वाली ताकत नहीं है। मैं व्यकितगत रूप से उन्हें जानता हूं। कई मुद्दों पर मतभेद होने के बाद भी मैं यह मानता हूं कि बिहार भाजपा के लिए, अगड़ा और पिछड़ें के अलावे दलितों को कोई लुभा सकता है तो वह केवल और केवल सुशील कुमार मोदी हैं और इस चुनाव ने यह साबित कर दिया है। विधान परिषद् चुनाव परिणाम के बाद सुशील कुमार मोदी की ताकत बढी है। चूकी इस पूरे चुनाव का खाका सुशील कुमार मोदी ने ही बनायी थी। अपने जिद्द पर कई नये लोगों को चुनाव लड़ाया था और वे सफल रहे। यही नहीं कुछ ऐसे भी लोगों को समर्थन दिया जो आनन-फानन में भाजपा का दामन थामे थे। इसलिए कुल मिलाकर यदि ऐसा कहा जाये कि बिहार विधान परिषद् का हालिया चुनाव परिणाम आने वाले समय में चौहत्तर आन्दोलन के तीसरे सबसे बड़े छात्र नेता मोदी के लिए शुभ है और बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उनकी दाबेदारी और मजबूत हुई है, तो गलत नहीं होगा। 

अब इस चुनाव परिणाम के क्षेत्रसह स्थिति का थोड़ जायजा लेते हैं। इस चुनाव परिणाम को देखकर ऐसा लगता है कि उत्तर बिहार में भाजपा और राजग की स्थिति बेहद मजबूत हुई है। मिथलांचल के चार सीटों पर भाजपा अपने बूते चुनाव जीती है। यहां तक की समाजवादियों की धरती कहे जाने वाले समस्तीपुर क्षेत्र में भी इस बार भगवा ने अपना परचम लहराया और किसी जमाने में मास्को के नाम से जाना जाने वाला बेगुसराय पर भी इस बार भाजपा ने कब्जा जमा लिया। खैर दरभंगा पर पहले से भाजपा का कब्जा रहा है लेकिन विधान परिषद् चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल का ही बोलवाला हाता था, जो इस बार संभव नहीं हो सका और भाजपा ने बाजी मार ली। इधर सहरसा, पूर्णिया, कटिहार, किसनगंज, अरडिया, सुपौल, खगड़िया, मधेपुरा में भी भाजपा और राजग ने कब्जा जमाया, जिसे अप्रत्याशित कहा जाना चाहिए। यदि विधान परिषद् क्षेत्र का आकलन विधानसभा क्षेत्र की दृष्टि से किया जाये तो दोनों गठबंधन नेक टू नेक फाईट में दिख रहा है। कुल मिलकार हम देखते हैं कि इस चुनाव में भाजपा ने करीब 90 विधानसभा वाले क्षेत्रों पर अपना कब्जा जमाया है, जबकि भाजपा की सहयोगी पार्टी लोक जन शक्ति पार्टी ने करीब 20 विधानसभा वाले क्षेत्र पर कब्जा जमा पायी है। इधर नीतीश के नेतृत्व वाली जनता दल (यु) 70 विधानसभा की सीटों पर बढत में है। लालू के नेतृत्व वाली आरजेडी भी 50 सीटों पर बढत में है जबकि कांग्रेस 12 सीटों पर अपनी पकड़ रखती दिख रही है। यदि विधान परिषद् चुनाव परिणाम वाली स्थिति विधानसभा चुनाव में रही तो भाजपा अपने साथियों के साथ 110 सीटें जीतती दिख रही है, जबकि जनता परिवार वाला महागठबंधन 122 विधानसभा सीटों पर मजबूत दिख रहा है। दूसरी ओर भाजपा ने करीब 06 बाहरी प्रत्याशियों को इस बार चुनाव मैदान में उतारी थी, इसका भी आने वाले समय में नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। यही नहीं भाजपा के खेमें में दो और संगठन शामिल होने वाले हैं। उसका क्या असर होगा यह तो समय बताएगा, लेकिन कुल मिलकार देखें तो जिस प्रकार भाजपा विधान परिषद् की जीत को महिमामंडित कर प्रचारित कर रही है, ऐसा कुछ है नहीं। उधर नीतीश कुमार इस चुनाव के बाद और ज्यादा सतर्क हो गये होंगे। इस चुनाव में साम्यवादी दलों की अहमियत को सार्वजनिक किया है। महागठबंधन के दल साम्यवादियों को कमजोर समझते हैं। यदि उनको साथ लेकर बिहार विधानसभा के चुनाव में वे उतरते हैं, तो महागठबंधन को फायदा होगा, अन्यथा जो स्थिति दिख रही है उसमें भाजपा अपने गठबंधन के साथ बिहार की बाजी पलटने में सफल भी हो सकती है। क्योंकि जिस अल्पसंख्यक मतों पर महागठबंधन को भरोसा है उसके विभाजन के लिए भी भारतीय जनता पार्टी का प्लान बी तैयार है। बिहार चुनाव में महाराष्ट्र चुनाव के तरह असदुद्दीन ओवैसी अपनी पार्टी के साथ चुनाव मैदान में उतरने वाले हैं। प्रेक्षकों का मानना है कि बिहार चुनाव में वे आए तो बिहार के अल्पसंख्यकों का बोट बटना तय है। ऐसे में इसका सीधा लाभ भाजपा और उसके गठबंधन को जाएगा। इसलिए नीतीश और लालू एकीकृत साम्यवादियों की ताकत को कम करके न देखें क्योंकि एकीकृत साम्यवादियों की ताकत बिहार के कम से कम 25 विधानसभा क्षेत्र पर प्रभावी है। पूरे बिहार में सभी साम्यवादी दलों का एकीकृत बोट प्रतिशत कम से कम 10 तो होगा ही। मैरवां विधानसभा, पूर्वी और पश्चिमी चम्पारण में तीन विधानसभा, बेगुसराय में चार, समस्तीपुर में एक, मधुवनी में दो आड़ा और भोजपुर में एक विधानसभा पर एकीकृत साम्यवादी अपनी पकड़ मजबूत रखते हैं। महागठबंधन के रणनीतिकार यदि 10 सीटें भी साम्यवादियों को दे देते हैं तो वे गठबंधन का अंग बन जाएंगे और तब नीतीश के नेतृत्व वाला यह गठबंधन बिहार के विधानसभा चुनाव में 140 सीटों पर अपनी बढत बना लेगा अन्यथा अभी की स्थिति से तो यही लगता है कि दोनों गठबंधन नेक टू नेक पर अटके हुए हैं।

Comments

Popular posts from this blog

अमेरिकी हिटमैन थ्योरी और भारत में क्रूर पूंजीवाद का दौर

आरक्षण नहीं रोजगार पर अपना ध्यान केन्द्रित करे सरकार

हमारे संत-फकीरों ने हमें दी है समृद्ध सांस्कृतिक विरासत