पंजाब में नये राजनीतिक समीकरण की सुगबुगाहट


Gautam Chaudhary
पंजाब का सियासी समीकरण बडी तेजी से बदल रहा है। संभव है कि भारतीय जनता पार्टी पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए नया गठबंधन बनाए और फिर से एक बार पंजाब की राजनीतिक में कप्तान अमरेन्द्र, अपरिहार्य हो जाएं। इसके लिए थोडा पृष्टभूमि खंगाल लेते हैं। दिल्ली की सत्तारूढ आम आदमी पार्टी द्वारा विधानसभा में सिखों के खिलाफ हुए सन् 1984 के दंगे के आरोपियों को सजा दिलवाने वाले प्रस्ताव के पारित होने से पंजाब के सिख एक्टिविस्ट उत्साहित हैं। उन्हें लगने लगा है कि जो न्याय उन्हें कांग्रेस और भाजपा की सरकारों ने नहीं दिलवाई, वह न्याय अब आम आदमी पार्टी दिलवा रही है। इस बात का पंजाब में बडा असर देखा जा रहा है।

इधर धूरी के विधायक अरविन्द खन्ना का विधानसभा की सदस्यता से अचानक त्याग-पत्र देना पंजाब के राजनीतिक रहस्य को और गहरा बना रहा है। याद रहे खन्ना, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान में कांग्रेस की ओर से उपनेता कप्तान अमरेन्द्र सिंह के खास माने जाते हैं। पंजाब के सियासी गलियारों में इस बात की जबरदस्त चर्चा हो रही है कि खन्ना इन दिनों केन्द्र की सत्ता चला रही भाजपा और सरकार के काफी निकट हैं। हालांकि उनकी निकटता का कारण क्या है, कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना तय है कि अरविन्द खन्ना के साथ भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व की कुछ खिचडी जरूर पक रही है, जिसका बडा प्रभाव पंजाब के राजनीतिक समीकरण पर पडना तय माना जा रहा है। अमूमन भाजपा के खिलाफ आक्रामक रहने वाले कप्तान अमरेन्द्र, खन्ना के त्याग-पत्र देने के बाद से बदल-बदले दिख रहे हैं। लाख खींच-तान के बाद भी पंजाब कांग्रेस में प्रताप सिंह बाजवा की राजनीतिक हैसियत बढती जा रही है। लाख कोशिश के बाद भी कप्तान अमरेन्द्र बाजवा को राजनीतिक दृष्टि से कमजोर करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसका साफ संकेत जा रहा है कि आने वाले समय में कप्तान अमरेन्द्र की स्थिति कांग्रेस में कमजोर ही होगी। कप्तान को नजदीकी से जानने वालों का अनुमान है कि ऐसी परिस्थिति में अमरेन्द्र कांग्रेस छोड भी सकते हैं। अमरेन्द्र के पास दो रास्ते हैं, या तो वे पंजाब की राजनीति छोड कर केन्द्र की राजनीति करें, या फिर कांग्रस को अलविदा कह पंजाब में नये प्रकार की राजनीतिक समिकरण बनाने की दिशा में काम करें। यदि अमरेन्द्र केन्द्र की राजनीति के लिए मान जाते हैं तो ठीक, नही ंतो प्रांत में वे ज्यादा टांग अडाएं तो कांग्रेस के राहुल वाला खेमा अमरेन्द्र को पार्टी से बाहर जाने के लिए मजबूर कर देगा। दोनों ही परिस्थिति में कप्तान को अपनी राजनीतिक लडाई के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पडेगा। यदि अमरेन्द्र किसी भी परिस्थिति में पार्टी छोडे तो, उनके पास दो विकल्प बचता है। एक तो वो अपनी पार्टी बनाकर सारे पंथक संगठनों को एकत्रित करें और पंजाब में दो गठबंधन की राजनीति के बीच एक नया गठबंधन खडा कर लें। दूसरा उनके पास भाजपा का भी विकल्प है। वे अपनी पार्टी बनाकर भाजपा के साथ समझौता कर सकते हैं। ऐसे में भाजपा का स्थानीय नेतृत्व बादल गुट वाले शिरोमणि अकाली दल का साथ छोड कप्तान अमरेन्द्र के साथ समझौता कर लेगा। इससे भाजपा को भी राजनीतिक लाभ मिलेगा और कप्तान की खोई राजनीतिक जमीन भी उन्हें प्रप्त हो जाएगी।

इसका थोडा-थोडा स्वरूप दिखने भी लगा है। विगत दिनों पार्टी की बिना अनुमति के कप्तान अमरेन्द्र ने पंजाब में सियासी यात्रा प्रारंभ कर दी। पत्रकारों द्वारा पूछे गये सवाल के जवाब में कप्तान ने कहा कि हम  बच्चे नहीं हैं कि किसी भी काम को करने के लिए आलाकमान से पूछे। हमारे पास विवेक हैं और हम पार्टी एवं अपना नफा-नुकसान देखकर कार्यक्रम तैय करने के लिए स्वतंत्र हैं। इधर पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा ने कप्तान समर्थक तीन विधायकों को नोटिस जारी कर दिया है। इससे पंजाब की राजनीतिक गर्मी थोडी और बढ गयी। अमूमन भाजपा और केन्द्र सरकार के खिलाफ जहर उगलने वाले कप्तान विगत दो रैलियों में भाजपा के खिलाफ आक्रामक नहीं दिखे। हां उन्होंने प्रोदेश सरकार और मुख्यमंत्री के परिवार पर जरूर हमला बोला, परंतु केन्द्र सरकार और भाजपा पर वे नरम रहे। यही नहीं जब फ्रांस यात्रा के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा राॅफेल विमान समझौता करने वाले मामले के खिलाफ भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वानी ने न्यायालय जाने की बात कही तो कप्तान ने मोदी का बचाव किया और स्वामी के खिलाफ जबरदस्त नकारात्मक टिप्पणी की। उस टिप्पणी को राजनीतिक गलियारे में महत्व मिला और प्रेक्षक इस मामले को गंभीरता से लिए। कयास यह लगाया जाने लगा कि इस हथियार डील में परोक्ष रूप से कप्तान की कोई भूमिका होगी यही कारण है कि कप्तान राॅफेल डील मामले में कांग्रेस के लाईन से अलग जाकर भाजपा और प्रधानमंत्री का समर्थन किया है। याद रहे इस डील को लेकर कांग्रेस पार्टी, बुरी तरह आक्रामक हो रही थी। अंदर की बात क्या थी, उसका अंदाज लगाना कठिन है, लेकिन उस बयान के बाद से राजनीत के जानकारों का आकलन बदल गया है। कप्तान के भाजपा के प्रति नरमी का रहस्य अब खुलने लगा है। कप्तान पंजाब में नये राजनीतिक समीकरण की योजना पर काम कर रहे हैं। यदि इस समिकरण में थोडी सी भी सत्यता है तो आने वाले समय में पंजाब का दलीय स्वरूप बदला-बदला सा होगा। कप्तान अपने दल-बल के साथ केसरिया खेमें में होंगे, जबकि बादल गुट वाले अकाली दल पंथक मुद्दों के साथ अलग-थलग पड जाएगा। इस खेल में कांग्रेस कमजोर होगी, लेकिन आम आदमी पार्टी को फायदा मिलने की संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता है। निःसंदेह कप्तान पंजाब में एक राजनीतिक शक्ति हैं। उनके साथ कांग्रेस के विधायकों की बडी संख्या जुडी हुई है। वे यदि कांग्रेस तोडकर भाजपा के साथ समझौता करते हैं, तो इस समझौते में भाजपा भी बेहद फायदे में रहेगी। उसका जनाधार खिसकने से बच जाएगा और नये बोटबैंक भी भाजपा के साथ जुडेंगे। दूसरी ओर इस सियासी डील से कप्तान को भी फायदा होगा। यदि कप्तान ज्यादा सीटें जीत लेते हैं तो भाजपा के समर्थन से वे सरकार बना सकते हैं और उस सरकार के मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं। इस डील में स्वाभाविक रूप से भाजपा को ज्यादा सीटें मिलेगी और भाजपा पंजाब में मजबूत होकर उभरेगी। यह डील किस स्तर तक पहुंचा है कहना कठिन है। यह डील होगा या नहीं यह भी कहना कठिन है, लेकिन इस डील के पीछे कप्तान का कोई विश्वस्थ अपनी योजना में लगा है इस बात को नकारा नहीं जा सकता है।

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