अमेरिका-इरान दोस्ती और भारत का नफा-नुकसान

गौतम चौधरी 
संयुक्त राज्य अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने इजरायल को धमकाते हुए कहा है कि यदि इजरायल अमेरिक-इरान परमाणु समझौते का विरोध किया तो वह दुनिया में अलग-थलग पड़ जाएगा। इस बयान ने साबित कर दिया है कि अमेरिका, इरान के साथ दोस्ती के लिए बेहद आतुर है। लिहाजा इस दोस्ती के आगे अमेरिका, यहुदियों की भी परवाह नहीं कर रहा है, जो अमेरिका के अंदर सबसे मजबूत लॉबी माना जाता है। क्या यह एशिया में नये कूटनीतिक समिकरण का संकेत है, या फिर कुछ और? इधर संयुक्त राज्य अमेरिका की इरान के साथ घट रही दूरी नि:संदेह भारतीय कूटनीति के लिए बेहद खुश करने वाला है, लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव पर भारत को गंभीरता से विचार करना चाहिए। बताया-समझाया यह जा रहा है कि अमेरिक के साथ इरान की दोस्ती के कारण भारत को सबसे ज्यादा फायदा होने वाला है। मुङो भी लगता है इस बात में दम है, लेकिन दूरगामी प्रभावों का यदि आकलन करें तो अमेरिका बेहद शातिराना चाल चल रहा है। इस आलेख के माध्यम से हम इस बार इरान और संयुक्त राज्य के बीच घट रही दूरी का भारत के उपर दूरगामी प्रभाव क्या पड़ेगा और वह कितना नकारात्मक-सकारात्मक होगा उसी का आकलन करने वाले हैं। 

इरान के प्रति संयुक्त राज्य अमेरिका की नरमी से यह साबित हो रहा है कि एशिया में वह नया कूटनीतिक समिकरण बनाने के फिराक में है। यह केवल आर्थिक ही नहीं होगा, अपितु इसका सामरिक प्रभाव भी असंदिग्ध है। अमेरिका देख रहा है कि उसके व्यापारिक हितों वाले देश में बड़ी तेजी से चीन और रूस प्रवेश कर रहा है। कुल मिलकार देखें तो नाटो अब प्रभावहीन सा होता जा रहा है। नाटो की अहमियत शीत युद्ध के समय थी, लेकिन अब नाटो अमेरिका के लिए बोझ बनता जा रहा है। याद रहे अमेरिका एक व्यापारिक मनोवृति का देश है इसलिए वह आर्थिक बोझ को ज्यादा दिनों तक नहीं सह सकता है। इधर भारत, चीन और रूस अपने आर्थिक हितों के लिए एक जुट हो रहा है। अपने प्रभाव का उपयोग कर इन देशों ने अमेरिका और अमेरिकी प्रभुत्व वाले आर्थिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए नये बैंक के गठन की योजना पर बड़ी तेजी से काम कर रहे हैं। आने वाले समय में संभव है कि इजरायल और जापान का भी इन देशों को सहयोग मिलने लगे। अमेरिका इस बात से भी घबड़ाया हुआ है। यही नहीं इन दिनों इजरायल की व्यापारिक महत्वाकांक्षा भी बड़ी तेजी से बढी है। वह दुनिया में अपने छोटे हथियारों और प्रभावशाली सुरक्षा उपकरण के व्यापार के लिए बड़ी धारदार रणनीति पर काम कर रहा है। अमेरिका इस बात से भी घबड़ाया हुआ है। दूसरी बात मुस्लिम जगत में लगातार अमेरिका और सउदी अरब के प्रति विश्वास में कमी आ रही है। मुस्लिम विश्व में अमेरिकी हितों पर हो रहे हमले इसी बात का संकेत है। ऐसा लगता है कि इस तमाम नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर अमेरिका ने अपनी कूटनीति में इरान को शामिल किया है और इरान की ओर दोस्ती का हाथ बढाया है। इरान का अमेरिका के साथ दोस्ती फिहाल भारत के हित में है। पहले भी भारत ज्यादा कच्च पेट्रोलियम पदार्थ इरान से खरीदा करता था। परमाणु लफड़े ने भारत और इरान के व्यापारिक संबंधों में अड़ंगा लगाया। अमेरिका के साथ इरान के परमाणु समझौते से दुनिया के देशों में मुक्तभाव से इरान तेल बेचने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा। इससे तेल की कीमत में कमी आएगी और कम से कम भारत के लिए कच्चे पेट्रोलियम की उपलब्धता में सहुलियत होगी। यही नहीं भारत और इरान के बीच लम्बे समय से अटका पेट्रोलियम पाईप लाईन योजना अब चालू हो पाएगा, जिससे भारत को सुलभता से ईंधन उपलब्ध हो जाएगा। बावजूद इसके भारतीय कूटनीतिज्ञों को समझ लेना चाहिए कि जो फायदा अभी भारत को दिख रहा है, वह फायदा भविष्य में घटता जाएगा क्योंकि अमेरिका इरान को नये दोस्त के रूप में खड़ा करने की रणनीति बना रहा है। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि फिलहाल इससे सबसे ज्यादा घाटा इजरायल और सउदी अरब को होने वाला है, संभवत: यही कारण है कि ये दोनों देश इरान के साथ अमेरिका के परमाणु समझौते का विरोध भी कर रहे हैं, लेकिन देर सबेर इस दोस्ती का नकारात्मक प्रभाव भारत पर भी पड़ने की पूरी संभावना है। 

इतिहास में यदि झांके तो इरान, शाह के जमाने में अमेरिका का विश्वस्थ मित्र हुआ करता था। वहां की तकनीक को विकसित करने में संयुक्त राज्य अमेरिका की बड़ी भूमिका रही है। आज भी इरान की तकनीक पर अमेरिका का प्रभाव दिखता है, इसलिए इरान को अमेरिका की तकनीक अन्य की अपेक्षा ज्यादा सूट करता है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस निर्माण उद्योग में भारत को हब बनाने की सोच रहे हैं, इसकी पूरी संभावना है कि आने वाले समय में उसके लिए अमेरिका इरान को खड़ा करेगा। इरान में बना माल आसानी से मध्य एशिया और मध्य पूरब के देशों में भेजा जा सकता है, लेकिन भारत में जो माल बनेगा उसको इन देशों में ले जाने के लिए अभी फिलहाल कोई सुलभ रास्ता नहीं है और अपने माल को मध्य एवं मध्य पूरब के देशों में भेजने के लिए भारत को बड़ी मशक्कत करनी होगी। दूसरी बात यह है कि भारत, चीन, रूस मिलकर आर्थिक मोर्चे पर अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देने की योजना बनायी है और ब्रिक नामक बैंक की स्थापना की है। इस घाटे को भांफ आने वाले समय में अमेरिका अपने प्रभाव का उपयोग कर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश का दरबाजा इरान के लिए खुलवाएगा, अपनी तकनीक इरान को उपलब्ध कराएगा, साथ ही दुनिया में तेल के व्यापार के लिए भी इरान को सहयोग करेगा। इसके कारण इरान में बड़े पैमाने पर उद्योग लगेंगे। इरान के पास बड़ी समुद्री सीमा है। वह समुद्री रास्ते का उपयोग कर दुनिया में अपने यहां बने सामान का व्यापार करेगा। उत्तर मध्य एशिया एवं मध्य पूरब के देशों में जमीनी जुड़ाव का उपयोग कर अपना बाजार खड़ा करेगा और देखते ही देखते भारत के मुकाबले में आकर खड़ा हो जाएगा। अमेरिका की रणनीति से भारत की व्यापारिक रणनीति प्रभावित होने वाली है, इसलिए भारत को इस रणनीति के जवाब के लिए अपनी दूरगामी रणनीति तय करनी होगी, जिससे वह इरान के हितो को बिना नुकसान पहुंचाये अपने व्यापार को महत्वपूर्ण उचाई दे सके। 

यदि सामरिक दृष्टि से देखा जाये तो इरान जहां अवस्थित है उसे उसका भौगोलिक विस्तार सामरिक महत्व का बना देता है। इरान पुरानी सभ्यता का देश है। वह विगत कई हजार वर्षो से दुनिया की प्रभावशाली सभ्यताओं के साथ संघर्ष करता रहा है। आज भी इरान अपनी संस्कृति के प्रति बेहद सेवेदनशील है। भले वहां इस्लाम है लेकिन इरान ने इस्लाम को इरानी सांचे में ढाल लिया है और अरब सम्यता एवं संस्कृति को बराबर का टक्कर दे रहा है। इरान शिया मुस्लमानों का केन्द्र है। वैश्विक अवधारना है कि शिया, सुनियों के मुकाबले ज्यादा मानवीय होते हैं। इस्लामी कट्टरता के मामले में भी इरान और शिया मुस्लमानों का दृष्टिकोण सुनियों की अपेक्षा लचिला है। व्यापारिक मनोवृति के होने के कारण शियाओं में सुनियों की अपेक्षा अन्य के प्रति ज्यादा स्वीकार्यता है। यह भी उसे भारत के मुकाबले खड़ा होने में सहयोग करेगा साथ ही अमेरिका भारत के मुकाबले एशिया में एक और प्रतिस्पर्धी खड़ा कर देगा, जिससे अमेरिका को लाभ होगा और भारत के व्यापारिक एवं सामरिक हितों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

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