सौन्दर्य प्रसाधन की कंपनियों का रंगभेदी मनोवृति



गौतम चौधरी 
समाचार माध्यमों में प्रचारित-प्रसारित दो खबरों ने सियासी हल्कों में नया तूफान खड़ा कर दिया है। पहली खबर हरियाणा की भारतीय जनता पार्टी सरकार के द्वारा बेटी बचाओ अभियान के लिए सिने अभिनेत्री परिणीती चोपड़ा को ब्रांड अम्बसडर बनाने वाली खबर है, तो दूसरी खबर हिन्दी सिनेमा के कथित महानायक अमिताभ बच्चन को प्रसार भारती द्वारा नाहक में छे करोड़ रूपये से ज्यादा की राशि प्रदान कर देना वाली है। इन दोनों खबरों पर बवाल मचा हुआ है। पता है, ये दोनों उसी जमात के हैं जिन्हे साम्राज्यवादी व्यापारियों ने महानायक के रूप में खड़ा किया है। पहले तो ऐसे लोगों को महानायक और महानायिका के रूप में खड़ा किया जाता है, फिर इन्हें साम्राज्यवादी ताकतें अपने साम्राज्य विस्तार के लिए हथियार के रूप में उपयोग करती है। 

मैं यह क्यों कहूं कि कलाकारों को सम्मान नहीं दिया जाना चाहिए, लेकिन बिना मतलब के काम को लेकर अभियान के नाम पर इन्हें प्रचार दिलाना और उसके माध्यम से आम जन को दिगभ्रमित करना, यह समाज के लिए खतरनात है और इसका विरोध होना ही चाहिए। ये किस प्रकार साम्राज्यवादियों के हथियार बनते हैं और समाज को किस प्रकार दिगभ्रमित करते हैं, इसका उदाहरण भरा पड़ा है। आजकल इन्ही महानायकों और नायिकाओं के द्वारा भारत में काली चमरी को गोरा बनाने का प्रचार अभियान चलाया जा रहा है। इनके प्रचार के कारण भारतीयों के वास्तविक रंगों के प्रति बड़े तरीके से दुष्प्रचार किया जा रहा है। यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि भारतीयों के चेहरे का रंग बेहद घटिया है और उसे यदि ठीक करना है तो फलां सौन्दर्य प्रसाधन लगाना चाहिए। इन दिनों दूरदर्शन वाहिनियों पर और लगभग हरेक भारतीय भाषा के प्रत्येक पत्र-पत्रकाओं में काली चमरी को कैसे गोरा बनाया जाये उसका विज्ञापन आपको थोक में देखने को मिल जाएगा। सतही तौर पर इसे आम समझ लिया जाता है, लेकिन इसे जितना सरल तरीके से देखा जाता है, उतना सरल तरीके से नहीं लिया जाना उचित नहीं है। मेरी दृष्टि में यह काली चमरी वालों के खिलाफ गोरे साम्राज्यवाद का मनोवैज्ञानिक आक्रमण है। लिहाजा अब हमें एक बार फिर से व्यापार के द्वारा गुलाम बनाने का षद्यंत्र किया जा रहा है। आईए एक नजर आंकड़ों पर डालते हैं। भारत में कॉसमेटिक प्रसाधनों का व्यापार लगभग 300 अरब रूपये का है। यह आंकड़ा विगत दो साल पहले का है। एक आंकड़े में बताया गया है कि वर्ष 2011 में भारत के अंदर सौन्दर्य प्रसाधन का बाजार 264.1 अरब रूपये का था, जो 2015 में 17 प्रतिशत बढ गया है। यह आंकड़ा चौकाने वाला है। सौन्दर्य प्रसाधन का व्यापार बड़ी तेजी से बढ रहा है क्योंकि फंतासी महानायक इसके प्रचार को लेकर जबरदस्त तरीके से लोगों को दिगभ्रमित कर रहे हैं। पहली बात हो हमारे भारतीय रंग के प्रति ये सौन्दर्य प्रसाधन के व्यापारी हीन भाव पैदा कर रहे हैं। दूसरा इस क्षेत्र में व्यापार को बढाने वाली कंपनियां उस हीन भाव का जबरदस्त तरीके से शोषण कर रही है। इसे समझने की जरूरत है और इसके खिलाफ खड़े भी होने की जरूरत है। आज के हमारे पड़ताल का विषय यही है। विगत कई दिनों से मैं इस विषय पर सोच रहा था और यह भी तय कर रहा था कि इस मामले पर कुछ लिखा जाये, तो कैसे लिखा जाये क्योंकि सैन्द्र्य प्रसाधन बेचने वाली कंपनियां केवल हमसे पैसे नहीं कमा रही है, अपितु हमें यह भी बोध कराने का षड्यंत्र कर रही है कि आप काले हो, इसलिए आप दोयम दज्रे के हो। यह तो एक प्रकार का रंगभेद ही हुआ न। एक तो पैसे खर्च करो और दूसरा गोरों के प्रति आदर का भाव भी रखो, ऐसा कैसे चलेगा?

गोरे और काले की लड़ई कोई नया नहीं है। इस लड़ई को रंगभेद की लड़ई भी कहा जाता है। हमारे गांधी जी जब वकालत करने दक्षिण अफ्रिका गये थे तो, उन दिनों दक्षिण अफ्रिका पर भी अंग्रेजों का कब्जा था। दक्षिण अफ्रिकी नागरिक, अंग्रजों के गुलाम थे और भारत भी अंग्रेजों की कॉलोनी था। अंग्रेज हम भारतीयों और अफ्रिकियों में कोई भेद नहीं करते थे। वे यह मानकर चलते थे कि ये दोनों हमारे गुलाम हैं। उन दिनों दक्षिण अफ्रिका में ही नहीं भारत में भी गोरे, यानि अंग्रजों के लिए अलग कानून था और हम भारतीयों के लिए अलग कानून था। अपने बुजुर्गो के द्वारा सुना है, उन दिनों सिमला के माल रोड पर भारतीयों का चलना गैरकानूनी था। यदि कोई उसपर चल ले, तो कोड़े बरसाये जाते थे। हम भारतीय ट्रेनों में नीचे बैठते थे, जबकि अंग्रेज सीट पर बैठकर चलते थे। 

दक्षिण अफ्रिका वाली गांधी जी के साथ घटी घटना के बारे में कौन नहीं जातना है। वह हमारे खिलाफ रंगभेद की पराकाष्ठा थी। गांधी जी ने उसका डटकर मुकाबला किया। हमारे पुरखों ने व्यापक संघर्ष के बाद आजादी पायी। यही नहीं हमारी लड़ाई के कारण अंग्रेज बहादुर, जिसके राज्य में सूरज अस्त नहीं होता था, उन्हें राज समेटने के लिए मजबूर होना पड़ा। अंग्रेजों का शासन तो चला गया, लेकिन उन्होंने जो व्यापारिक और मनोवैज्ञानिक साम्राज्यवाद की योजना बनायी थी, वह आज भी सफल हो रहा है। संयुक्त राज्य अमेरिका में आज भी रंग के आधार पर भेद किया जाता है। संयुक्त राज्य में आए दिन सुनने को मिलता है कि गोरे पुलिस ने बिना किसी अपराध के काले व्यक्ति की हत्या कर दी। यह मानसिकता प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं लेकिन परोक्ष रूप से हमारे देश में आज भी जिंदा है। सौन्दर्य की कोई परिभाषा नहीं होती है। कौन कितना सुन्दर है, यह कहना बड़ा कठिन है। सुन्दरता का कोई मापदंड नहीं होता है इसलिए यदि कोई यह कहे कि गोरे लोग सुन्दर होते हैं और काले सुन्दर नहीं होते, यह तो गोरों का कालों के खिलाफ अघोषित लड़ाई है। यदि सौन्दर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनियां अपने प्रचार के दौरान यह कहे कि उनका प्रसाधन वेहतर निखार के लिए है, तो मामला चले, लेकिन जब वह यह कहने लगे कि फलां प्रसाधन एकदम से गोरा बना देगा, यह न तो सैद्धांतिक रूप से सही है और न ही कानूनी दृष्टि से उचित है, बावजूद आये दिन दूरदर्शन वाहिनियों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापनों का तिलस्म खड़ा किया जा रहा है। यह इसलिए भी है कि सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण में लगी लगभग सारी कंपनियां गोरे लोगों के द्वारा खड़ी की गयी है। जो भारतीय कंपनियां इस व्यापार में है वह भी उसी कंपनियों का अनुसरण कर रही है। ऐसे में अपने रंग के स्वाभिमान को लेकर एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई जरूरी लग रहा है।

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