व्यापारिक हितों के लिए अपनी नीति बदलाव रहा है अमेरिका

गौतम चौधरी
इतिहास को याद कीजिए, संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुस साहब ने कभी कहा था कि क्यूूूबा, इरान और दक्षिण कोरिया शैतानियत की घुरी है। मुङो पूरा-पूरा याद नहीं है, लेकिन संभवत: उन्होंने कुछ और देशों का नाम लिया था और कहा था कि ये देश मानवता के दुश्मन हैं। आज उसी अमेरिका को मजबूर होकर दो शैतानी आत्मा वाले देशों के साथ समझौता करना पर रहा है। क्या अमेरिका की नीति बदल रही है, क्या अमेरिका अब इन देशों को शैतानी ताकत से संपन्न देश नहीं मानता, या फिर अमेरिकी कूटनीतिज्ञ कुछ अलग रणनीति पर काम कर रहे हैं, आज हमारे पड़ताल का यही विषय है।

कुल मिलकार देखें तो अमेरिकी इतिहास से यही पता चलता है कि संयुक्त राज्य एक निहायत व्यापारिक मनोवृति वाला देश है। वह अपने व्यापारिक हितों को तिरोहित होता नहीं देख सकता। इरान और क्यूबा के साथ अमेरिका का व्यापारिक हित क्या हो सकता है, यह एक गंभीर सवाल है। लिहाजा इन दिनों विश्व परिदृष्य बड़ी तेजी से बदल रहा है। प्रकारांतर में झांकें तो स्पष्ट दिखता है कि घुर विरोधी सउदी अरब और इजरायल का जो केन्द्रीय सत्ता प्रतिष्ठान है वह आपस में दोस्त है। इस्लामिक एशिया के विष्लेशकों का तो यहां तक दावा है कि अमेरिका, सउदी अरब और इजरायल ने ही इरान और शियाओं के खिलाफ इस्लामिक स्टेट को न केवल प्रोत्साहित किया अपितु उसे दुनियाभर का अत्याधुनिक हथियार भी उपलब्ध कराया है। इधर चीन और रूस के साथ पाकिस्तान की नजदीकी बढ़ रही है। रूस और चीन पहले से शिया नेतृत्व वाले इरान और सीरिया के साथ है। साथ ही इन देशों में अब रूस अपना हथियार भी बेचने की योजना बना रहा है। विगत दिनों गृहयुद्ध ग्रस्त सीरिया को रूस ने बड़े पैमाने पर हथियार दिये। इन दिनों रूस आक्रामक तरीके से एशियायी देशों में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। यही नहीं कुछ अमेरिकी रणनीतिक देशों में भी रूस ने अपनी पहुंच बनाई है। चीनी आक्रामक बाजार ने पहले से अमेरिका को नाक में दम कर रखा है। रूस जहां एक ओर अमेरिकी प्रभुत्व वाले नाटों को कमजोर करने के लिए चीन के स्वामित्व वाले संघाई सहयोग संगठन को मजबूत कर रहा है वहीं दूसरी ओर आर्थिक मोर्चो पर अमेरिकी को मात देने के लिए रूस ने पश्चिमी प्रभाव वाले अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश एवं विश्व बैंक के समानांतर ब्रिक्स बैंक को मजबूत करने लगा है।
उधर अमेरिका दो दशकों से अपने आक्रामक विदेश नीति के कारण दुनिया के कई देशों को दुश्मन बना लिया है। अमेरिका के इस रणनीति के कारण उसके खास मित्र भी अब उससे कन्नी काटने लगे हैं। दूसरी बात यह है कि अमेरिका अपने हितों के लिए किसी की भी परवाह नहीं करता। इस रणनीति से पश्चिम के उसके मित्र भी वाकिफ हैं। पूरा का पूरा दक्षिणी अमेरिकी देश इन दिनों अमेरिका के खिलाफ अंदर ही अंदर सुलग रहा है। अफ्रिकी देशें में भी अमेरिका के प्रति अच्छी छवि नहीं है। इस्लामी विश्व में तो अमेरिकी हितो तक पर आक्रमण हो रहा है। इराक और अफागनिस्तान में बेहद खर्च करने के बाद भी अमेरिका को कुछ खास हाथ नहीं लगा। अब वह अपने दो दशकों के आक्रामक विदेश नीति की समीक्षा कर रहा है।

रूस के बढ रहे कदम ने संभवत: अमेरिका को हिलाकर रख दिया है और उसे अब यह लगने लगा है कि उसकी पारंपरिक रणनीति का असर उसके व्यापारिक हितों पर प्रहार कर रहा है। अद्यतन आंकड़ों में बताया जा रहा है कि रूस ने अपने रक्षा बजट में 44 प्रतिशत की बढोतरी की है। इन वैश्विक बदलाव ने अमेरिकी रणनीतिकारों को अपनी विदेश नीति पर फिर से सोचने को मजबूर कर दिया है। हालांकि क्यूूबा पर अमेरिकी नीतियों में बदलाव पर विष्लेशकों और कूटनीतिकों के बीच गहन विमर्श जारी है लेकिन इरान पर जो अमेरिका की नीति में बदलाव आया है उसके पीछे के कारण केवल और केवल अमेरिकी व्यापारिक हित है। क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल क्वात्रो ने आज से 14 साल पहले एक पत्रकार वार्ता के दौरान पूछे गये सवाल के जवाब में कहा था कि क्यूबा का संयुक्त राज्य के साथ संबंध सामान्य तब होगा जब अमेरिका में कोई काला राष्ट्रपति होगा और वेटिकन कैथोलिक चर्च का पादरी कोई दक्षिण अमेरिकी मूल का होगा। आज क्वात्रो की भविष्यवाणी सही साबित हो रही है। क्यूबा से संबंधों को सामान्य बनाकर संयुक्त राज्य अमेरिका दक्षिण अमेरिकी देशों के साथ अपना संबंध सुधारना चाहता है, जिससे वह दक्षिण अमेरिकी देशों के संसाधनों का विदोहन कर सके, साथ ही अपनी तकनीक का नया बाजारा बना सके। इरान के साथ समझौतों के पीछे भी संयुक्त राज्य अमेरिका की संभवत: यही रणनीति है। हालांकि कुछ विष्लेशकों का यह मानना है कि अमेरिका का हथियार व्यापार रूस के साथ प्रतिस्पर्धा में कमजोर परने लगा है। भारत, चीन, जापान, उत्तर कोरिया, इरान, सीरिया, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रिका, दक्षिण अमेरिकी देश आदि इन दिनों रूस से हथियार खरीद रहे हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार खरीदने वालों में भारत और सउदी अरब का नाम आता है। भारत अपने उपयोग का हथियार इजरायल, फ्रांस और रूस से खरीद रहा है, जबकि सउदी अरब अमेरिका से हथियार खरीदता है। पहले पाकिस्तान अमेरिकी हथियार पर निर्भर था, लेकिन विगत दो-तीन महीने पहले रूस ने पाकिस्तान के साथ रक्षा समझौता कर लिया और अब पाकिस्तान, रूसी हथियार का बाजार बन गया है। यही नहीं अंदर खाने कई पश्चिमी देश अपना हथियार बेच रहे हैं। इजरायल खुद हथियार का बड़ा व्यापारी बन  गया है। अमेरिका अपने सिकुरते हुए हथियार व्यापार से खासे घबड़ाकर इरान और क्यूबा की ओर दोस्ती का हाथ बढाया है। जानकार बताते हैं कि अमेरिका के दो राजनीतिक दलों को आर्थिक सहयोग करने के लिए दो लॉबी काम करती है। एक लॉबी पेट्रोलियम लॉबी है और दूसरी लॉबी हथियारों के व्यापारियों की लॉबी है। अमेरिकी डेमोक्रेटों को आर्थिक सहायता देने वालों में बड़े पैमाने पर हथियार के व्यापारी हैं। संभवत: यह कारण भी हो सकता है कि अमेरिका इरान और क्यूवा के साथ अपने संबंधों को सुधार रहा हो।

कुल मिलाकर देखें तो अमेरिका एक व्यापारिक मनोवृति का देश है। वह अपने व्यपारिक हितों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। जब उसे प्रेट्रोलियम के व्यापार पर कब्जा करना था तो उसने बिना किसी वैधानिक सबूत के इराक पर आक्रमण कर दिया और एक राजनीतिक इकाई को ध्वस्त कर दिया। उसने कई संस्थाएं खुद के नेतृत्व में बनयी और फिर उसका व्यापारिक हित नहीं सधा तो उसे छोड़ भी दिया। अपने हितों के लिए उसने नाटो बनाया। नाटो के साथ जिन देशों को जोड़ा उसे हित पहुंचाने की पूरी गारंटी दी, लेकिन ऐसे कई मौके आए जब उसने नाटों के देशों के हितों के साथ भी खिलवाड़ किया। इस संभावनाओं को कतई नहीं नकारना चाहिए कि देर सवेर अमेरिका उत्तर कोरिया के साथ भी अपना संबंध सुधारेगा। खैर इस परिवर्तन और खड़े हो रहे नये वैश्विक समीकरण में भारतीय हितों को फिलहाल फायदा होता दिख रहा है, लेकिन अमेरिकी की दूरगामी रणनीति भारत के हितों में नहीं दिख रही है, साथ ही साथ अमेरिका की इस रणनीति से अमेरिका की इजरायत के साथ भी दूरी बढ़ने की संभावना है। फिलहाल तो भारत को इस अवसर का फायदा तसल्ली से उठा लेने की जरूरत है।

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