सांप्रदायिक सद्भाव का एक आदर्ष नमूना प्रस्तुत करता है पंजाब का मालेरकोटला

कलीमुल्ला खान
मालेरकोटला पंजाब की हैदर की दरगाह सांप्रदायिक सद्भावना व आपसी भाईचारे की ऐसी मिसाल है जहां न केवल हिन्दू, मुसलमान माथा टेकने जाते हैं अपितु सिख धर्मावलम्बी भी यहां इकट्ठे श्रद्धासुमन चढ़ाते हैं। दरगाह में मौजूद मोआज्जिन की नमाज पढ़ने के लिए दी जाने वाली आजान, नजदीक ही जर्ग-चौक पर स्थित एक मंदिर में होने वाली आरती की आवाज में बड़ी खूबसूरती के साथ समा जाती है। साड़ी तथा बुर्का पहने हुए औरतें आमतौर पर पंजाबी में बातचीत करती हुई यहां अक्सर देखी जा सकती है, चाहे वह राखी के त्योहार हों या ईद हर अवसर पर हिजाब से ढकी लड़की अपनी सहेली को राखी का चुनाव करते दिख जाती है यहां, या फिर कोई अन्य ऐसा ही अवसर पर चाहे वह हिन्दू की लड़की हो या मुसलमान की एक साथ अकसरहां देखी जा सकती है।
मालेरकोटला में सांप्रदायिक सद्भावना की यह अनूठी मिसाल यहां के लोगों द्वारा अपनी कोषिषों के सहारे कायम की गई है, जिसे हाल के महीनों में कुछ बाहरी लोगों द्वारा पवित्र कुरानषरीफ की बेअदबी के कृत्यों द्वारा तोड़ने की कोषिष की गई। कोषिषें तो बड़ी हुई किन्तु दोनों समुदायों में मौजूद परस्पर भाईचारा टस से मस न किया जा सका। इस भूतपूर्व रियासत पर अफगानिस्तान के पठानों के वंषजों ने, जिन्हें नवाब कहा जाता था, ने राज किया जिन्होंने 1947 में हुए बंटवारे की काली छाया इस पर बिल्कुल भी न पड़ने दी तथा देष के बाकी हिस्सों में बंटवारे के दौरान हुए दंगे-फसादों का यहां कोई असर तक नहीं देखने को न मिला। यहां के लोग कहते हैं कि यहां धर्म नहीं, बल्कि इंसानियत पर यकीन किया जाता है। इस कस्बे में रहने वाले वाषिंदे अफवाह उड़ाने वाले व सांप्रदायिक सद्भावना को बिगाड़ने वालों को हमेषा से आईना दिखाते रहे हैं। यहां के लोग हमेषा ही आपसी भईचारे पर गर्व करते देखे जा सकते हैं जो उन्होंने बीते वर्षों में सूफीवाद के रहस्यमयी धागों को सहेज कर सीखा व समझा। स्थानीय पुलिस के आंकड़े भी यह दर्षते हैं कि पिछले पांच वर्षों में दंगों या सांप्रदायिक तनाव का एक भी मामला यहां देखने में नहीं मिला है।
मालेरकोटला 122 वर्ग किमी. क्षेत्रफल पर फैला हुआ है। यहां की अर्थव्यवस्था उन कषीदाकारों पर आधारित है जो अपनी राजी-रोटी भारतीय व अमेरिकी सेना, संयुक्त राष्ट्र संघ, कांगो, तुर्की, कनाडा, रवांडा तथा कुवैती पुलिस के जवानों की वर्दियों पर लगने वाले बिल्लों, झंडों, बैनरों, रस्मी यूनिफॉर्म इत्यादि बनाकर करते हैं। इस कार्य को करने वालों की कार्यषालाए व दुकानें यहां स्थानीय मुसलमानों द्वारा चलाई जाती हैं। वहीं पर कढ़ाई करने वाले करीगर ज्यादातर हिन्दू हैं, जो यह कार्य मिलजुल कर बरसों से करते आ रहे हैं। स्थानीय हिन्दू, मुस्लिम एवं सिखों में व्याप्त यह भाईचारा इनके अनुसार मालेरकोटला के पुराने सूफी-संतों के आर्षीवाद के कारण संभव हो सका है।
यहां के ज्यादातर स्थानीय लोग धर्मनिरपेक्ष होने के कारण उदारवादी सोच के हैं। गोया यह शहर कभी सोता नहीं है और न ही यहां की दुकानों पर शटर देखे जा सकते हैं। यहां लोग रात के 2 बजे भी चाय की दुकान एवं अन्य स्थानों पर या तो सूफियाना दर्षन, कविताओं पर बातचीत करते दिख जाएंगे या फिर चाय की चुस्कियां लेते हुए शेरो-षायरी करते मिलेंगे। मालेरकोटला कस्बे के कव्वालों ने खुसरो तथा औलिया जैसे नाम्वर सूफी के कलामों को अपनी आवाज में जिंदा रखा है और उनका मानना है कि इन्ही कलामों की बदौलत मालेरकोटला की शानो-षौकत बरकरार है।
इसके अलावा, बुल्ले शाह, अमीर खुसरो व ख्वाजा साहब द्वारा अपने कलामों और छंदों के माध्यम से जो इंसानियत का पाठ पढ़ाया, उसने मालेरकोटला को आज भी बांध कर रखा हुआ है। इनके कलामों को यहां के हिदू-सिख और मुस्लमान कव्वाल एक साथ मिलकर पेष करते हैं। यहां की धार्मिक सांप्रदायिकता मालेरकोटला के पुराने नवाबों, जिनमें इफ्तखार अली खान जो यहां के आखिरी नवाब हुए हैं, के दरबार में भी देखी जा सकती थी, जहां उनके ज्यादा सलाहकार और दरबारी हिन्दू थे। उनकी बेगम मनवर-उल-निषा, जिनकी उम्र आज 90 वर्ष से ज्यादा होगी, अपने पुराने पड़ चुके मुबारक-महल में आज भी रह रही है। वो बताती हैं कि उन्होंने नवाब साहब के जीते-जी बंटवारे के दौर को भी खूब नजदीक से देखा था। यहां लोग नवाब साहब की खूब इजजत किया करते थे क्योंकि उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों, दोनों की ही बटवरे के दौरान हिफाजत की थी। हाल के कुछ महीनों में बांग्लदेष, मध्य-पूर्व एषिया, पष्चिमी देषों तथा अन्य स्थनों पर घटित घटनाओं का इस शहर के सांप्रदायिक तानेबाने पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा है। यहां मुस्लिम परिवारों में होने वाली शादियों के दौरान दो तरह के खानसामों को शाकाहारी व मांसाहारी खाना बनाने के लिए नियुक्त किया जाता है, ताकि हिन्दू और मुस्लम, दोनों तरह के मेहमानों के खान-पान की आदतों व पसंद का ख्याल रखा जा सके। इन शादियों में उर्दू व गुरमुखी दोनों भाषाओं में कर्ड छपाए जाते हैं तथा कई मुसलमानों द्वारा हिन्दू बेटियों का कन्यादान भी करते देखा गया है। 
इस कस्बे की इस मिसाल को यह पंक्तियां बड़ी खूबसूरती से बयां करती है:
चांद तू बहुत खुषनसीब है, यहां ईद भी तेरी और करवाचौथ भी तेरा।

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